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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

दूसरी बात। परंपरागत ज्ञान के साथ जीने में एक तरह की सुरक्षा, एक तरह की सिक्योरिटी है। सभी लोग जिस बात को मानते हैं, उसे मान लेने में एक तरह की सुरक्षा है। राजपथ पर चलने जैसी सुरक्षा है। एक बड़ा राजपथ है, हाइवे है, उस पर हम सब चलते हैं सुरक्षित कोई भय नहीं, बहुत लोग चल रहे हैं। लेकिन पगडंडियां हैं, अकेले रास्ते हैं, जिन पर यात्री मिले या न मिले। कोई साथी, सहयोगी हो या न हो। अकेले जंगलों में भटक जाने का डर है। अंधेरे रास्ते हो सकते हैं--अनजान, अपरिचित, अननोन--उन पर जाने में भय लगता है।

इसलिए हम सब सुरक्षित बंधे हुए रास्तों पर चलते हैं ताकि वहाँ सभी लोग चलते हैं, वहाँ कोई भय नहीं है, रास्ते पर और भी यात्री हैं, आगे भी यात्री हैं, पीछे भी। इससे यह विश्वास मन में प्रबल होता है कि जब आगे लोग जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे। पीछे लोग जा रहे हैं तो ठीक ही जा रहे होंगे। मैं ठीक ही जा रहा हूँ, क्योकि बहुत लोग जा रहे हैं। और हर आदमी को यही खयाल है कि बहुत लोग जा रहे हैं। यह एक म्युचुअल फैलसी है, यह एक पारस्परिक भ्रांति है। बहुत लोग एक तरफ जा रहे हैं तो प्रत्येक यह सोचता है, इतने लोग जा रहे हैं तो जरूर ठीक जा रहे होंगे। सभी लोग गलत नहीं हो सकते। और हर एक यही सोचता है।

भीड़ एक भ्रम पैदा कर देती है। तो हजारो वर्षों की एक भीड़ चलती है एक रास्ते पर। एक नया बच्चा पैदा होता है, वह इतना अकेला, इस भीड़ से अलग हटकर कैसे जाए- उसे विश्वास नहीं आता है कि मैं ठीक हो सकता हूँ, उसे विश्वास आता है इतने लोग ठीक होंगे।

ज्ञान की दिशा में यह डेमोक्रेटिक खयाल सबसे बड़ी भूल साबित हुई है। ज्ञान कोई लोकतंत्र नहीं है। यहाँ कोई हाथ उठाने और भीड़ के साथ होने का सवाल नहीं है।

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