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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक फकीर हिदुस्तान से चीन गया था, कोई चौदह सौ वर्ष पहले। बड़ा प्यारा आदमी रहा होगा। अगर वह यहाँ मेरी जगह होता तो आपकी तरफ मुंह करके न बोलता, वह आपकी तरफ पीठ करके बोलता। वह जब भी किसी से बोलता तो पीठ उसकी तरफ करता था और मुंह दीवाल की तरफ। लोग हैरान थे। चीन का सम्राट उससे मिलने आया और जब उसने पीठ की और दीवाल की तरफ मुंह करके बात करने लगा तो उसने कहा, यह क्या पागलपन है। आप मुझसे बात करते हैं और दीवाल की तरफ मुंह किए हैं। उस फकीर ने कहा, अब तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला, जो दीवाल न हो। कोई सहयोग ही नहीं करता तो उससे बोलने का प्रयोजन भी क्या है। सिर्फ भ्रम होता है कि हम बोल रहे हैं, सुनने वाला मौजूद ही नहीं होता है।

तो तीन दिनों में आप किस भांति सहयोग कर सकेंगे, उस संबंध में कुछ तीन सूत्र आज मुझे आपसे कह देने हैं। उन तीन सूत्रों के आधार पर ही आपका सहयोग, आपका को-आपरेशन मिल सकता है, और मैं जो कहना चाहता हूँ--मैं तो उसे कहूँगा ही, लेकिन आपका सहयोग होगा तो आप भी उसे सुन सकेंगे। अन्यथा मेरा कहना तो पूरा हो जाएगा, आपके सुनने की भी शुरुआत नहीं होगी। इतने से ही काफी मत समझ लेना कि मैंने बोला, तो आपने सुन लिया। यह बात इतनी आसान नहीं है। आपको सुनने के लिए भी कुछ करना होगा, जैसा कि बोलने के लिए मुझे कुछ करना पड़ता है। आप यहाँ निष्क्रिय होकर, आप यहा पैसिव होकर अगर तीन दिन बैठे रहे, जैसे आप सिनेमा देखते हैं--वैसे, तो फिर मेरी बात आपको सुनाई नहीं पडेगी।

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