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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

जिन सत्यों की हमें यहाँ चर्चा करनी है, उन सत्यों को सुनने के लिए आपको एक्टिव-पार्टिसिपेट, आपको सक्रिय-सहयोगी होना पडेगा, अन्यथा वे बातें आप तक नहीं पहुंचेंगी। तो आप कैसे अपना सहयोग दे सकेंगे, मैं तो बोलूगा, लेकिन आप कैसे सुन सकेंगे और आप नहीं सुन सके तो कोई अर्थ मेरे श्रम का नहीं होता है। और आप नहीं सुन सके तो शायद आप कहेंगे मैं गया, लेकिन कुछ भी नहीं हो पाया। बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन उसमें मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण आप हैं। मैं बहुत महत्वपूर्ण नहीं हूँ। आप ही ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। और वे तीन छोटे से सूत्र हैं, जिनके अनुकूल इन तीन दिनों अगर आपने थोडी तैयारी की तो जिस बात की आप कामना लेकर आए हैं, वह हो सकता है।

उनमें पहला सूत्र है--इन तीन दिनों में इस भांति जिएं, जैसे कि पीछे अब कुछ भी नहीं है और आगे भी कुछ नहीं।

हम तो इस भांति जीते हैं, जैसे इस समय कुछ भी नहीं है--जो कुछ है, पीछे था और जो कुछ है, आगे है। वर्तमान का, प्रजेंट का--जो मौजूद है, हमारी दृष्टि में कोई आकलन ही नहीं होता है। और सच्चाई यह है कि वर्तमान की ही केवल सत्ता है। एक्जिस्टेंस केवल उसका ही है, जो मौजूद है। न तो जो बीत गया उसकी कोई सत्ता है और न उसकी जो आने को लेकिन या तो हम पीछे की तरफ देखते हुए जीते हैं, या आगे की तरफ। या तो अतीत की चिंता हमारे मन में होती है, या भविष्य की कल्पना। लेकिन वर्तमान का कोई बोध नहीं होता है। और वर्तमान का बोध न हो, तो न तो आप जी सकते हैं और न सुन सकते हैं, न समझ सकते हैं--और न सत्य को जानने का द्वार खुल सकता है।

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