ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
हमारा चित्त निरंतर की आदत के कारण या तो पीछे की स्मृतियों में खोया रहता है, जिनकी अब कोई जगह नहीं रह गई जमीन पर, पृथ्वी पर। सत्ता में जिनके कोई चिह्न नहीं रह गए, सिवाय हमारी मेमोरी, हमारी स्मृति को छोड़कर। और या फिर हम भविष्य की ऊहापोह में, कल्पना में, आने वाले कल के इरादे और विचारों में खोए रहते हैं। ये दोनों ही तरह के लोग कभी भी सत्य को नहीं जान सकते हैं। क्योंकि सत्य है वर्तमान में--इस क्षण में, अभी और यहाँ। और हम अभी और यहाँ कभी भी नहीं होते हैं। हम कहीं पीछे या कहीं आगे होते हैं।
बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने गांव वापस लौटे थे। उनके पिता बुद्ध का स्वागत करने गांव के बाहर गए। लेकिन मन में उनके बहुत क्रोध था। बारह वर्ष पहले यह लड़का घर-द्वार छोड़कर भाग गया था, उसकी पीड़ा थी, दुःख था। जाकर उन्होंने बुद्ध से कहा, तू अभी भी वापस लौट आ, मेरे द्वार खुले हैं। बहुत चोट, बहुत दुःख तूने मुझे पहुँचाया है, लेकिन आखिर मैं पिता हूँ। पिता का प्रेम मैं अपने दरवाजे बंद नहीं कर सकता, तुझे क्षमा कर दूंगा, तू वापस आ जा।
बुद्ध ने क्या कहा, पता है?
बुद्ध ने कहा मैं निवेदन करूंगा, कृपा करके आप एक बार मुझे देखे, जो मैं हूँ। जो बारह साल पहले आपके घर से गया था, वह अब कहीं भी नहीं है। मैं दूसरा ही होकर लौटा हूँ। मैं बिलकुल नया हूँ। और आप मुझे देख ही नहीं रहे हैं, क्योंकि आपकी आंखों में बारह वर्ष पहले का चित्र ही मौजूद है। आप उसी से बातें कर रहे है, जो बारह साल पहले था। गंगा में बहुत पानी बह गया बारह वर्षों में, मुझमे भी बहुत पानी बह गया बारह वर्षों में, मैं अब बिलकुल दूसरा आदमी होकर लौटा हूँ।
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