उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मुझे हँसी आ गई। हम दोनों कोठी के भीतर चले आये थे।
माणिकलाल ने मुझको अपने घर में ले जाकर एक कुर्सी पर बैठाकर कहा, ‘‘यों तो दूल्हे का पिता कोई भी बनने को तैयार हो जायेगा, परन्तु इसमें मेरा मान और प्रतिष्ठा बढ़ेगी यदि आप यह कार्य करें।
‘‘यदि आप नहीं आते तो मैं आपको विवश नहीं कर सकता था। आप आ गये हैं और विवाह में सम्मिलित होने वाले हैं, अतः यह सम्मनित कार्य भी आप कर देंगे तो मैं आपका आभारी रहूँगा।’’
माणिकलाल के कहने का ढ़ंग ऐसा था कि मैं इन्कार नहीं कर सका। मुझको चुप देख उसने कहा, ‘‘धन्यवाद वैद्यजी!’’
‘‘अब यह देखिये कि मेरे श्वसुर श्री नटवरलाल अभी आने वाले हैं। आप उनसे विवाह का कार्यक्रम निश्चित कीजिएगा। प्रबन्ध सब मैं पूर्ण कर दूँगा। आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। हाँ, निश्चय आप करेंगे।’’
‘‘मैं अभी विचार ही कर रहा था कि इतने उत्तरदायित्व के कार्य को स्वीकार करूँ अथवा न, कि बँगले में दो मोटर गाड़ियाँ आ खड़ी हुई। उसमें से तीन आदमी और चार स्त्रियाँ निकल आई। हम दोनों कमरे से निकल उनका स्वागत करने लगे। माणिकलाल ने सबको हाथ जोड़ नमस्कार की और मेरा परिचय करा दिया–‘‘ये हैं वैद्यजी, जिनके विषय में मैंने आपसे कहा था। ये आ तो कल ही गये थे, परन्तु अपने साले के विवाह में व्यस्त होने के कारण आज ही यहाँ आ सके हैं।’’
‘‘ओह, आप हैं श्री शरणदासजी। आइये, भीतर चलकर बात करेंगे।’’
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