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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘बात यह है कि मेरे भाई की पत्नी सन्तोष आपकी पत्नी की सहेली है। दोनों के पिता भी परस्पर मित्र हैं। इस कारण आपकी पत्नी के पिताजी के आग्रह पर मेरी भावज को और मुझको वापस जाने का कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा है।’’

‘‘ओह! तो आप लड़की वालों की तरफ से आई हैं? तब भी ठीक है। परन्तु कल मध्याह्न का भोजन करने यहाँ मेरी ओर से आइयेगा। आपको मेरी माँ का ‘पार्ट प्ले’ करना होगा।’’

मुझे हँसी आ गई। इस समय नोरा को विदा देने के लिए लाया गया और विदाई हो गई। वापस जाते समय मैं मोटर में आगे ड्राइवर के पास बैठा था। पीछे की सीट पर नोरा और माणिकलाल थे तथा साथ में माणिकलाल के मित्र की पत्नी सरस्वती थी।

बाजे-गाजे के साथ डोली लाई गई। अपने डेरे पर पहुँच मैंने माणिकलाल से विदा माँगी तो उसने नोरा को मेरा परिचय दिया। और कहा, ‘‘यह है वैद्यजी, जिन्होंने मेरे पिता बनकर मिलनी की थी।’’

नोरा ने झूककर मुझको पाँव लागूँ कहा और फिर पूछने लगी,

‘‘आप मुझसे पहले कभी मिले हैं?’’

‘‘मुझको स्मरण नहीं।’’

‘‘मालूम नहीं क्या बात है? मुझको ये...’’ उसने माणिकलाल की ओर संकेत कर कहा, ‘‘और आप, दोनों देखे-भाले प्रतीत होते हैं।’’

इस पर माणिकलाल ने कहा, ‘‘कल तुमको माताजी अर्थात् इनकी धर्ममपत्नी से भी भेंट कराऊँगा। कदाचित् वे भी देखी-भाली प्रतीत होंगी। आज वे तुम्हारी सहेली सन्तोष की ननद के नाते, तुम्हारी ओर से विवाह में सम्मलित हुई थीं।’’

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