|
उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘सत्य? तो आप सन्तोष के ननदोई हैं।’’
‘‘हाँ, विवाह पर आते समय तो हम तीनों को पता नहीं था कि हम एक ही विवाह पर आ रहे हैं। यह तो जब संस्कार आरम्भ हुआ।, तब पता चला।’’
‘‘भगवान् जाने क्या बात है! मैंने उनसे भी कहा था कि वे मेरी पूर्व-परिचित प्रतीत होती है।’’
मैंने प्रश्न-भरी दृष्टि से माणिकलाल की ओर देखा। मैं समझता था कि कदाचित् वह इस पर प्रकाश डालेगा। माणिकलाल ने केवल इतना कहा, ‘‘यह गुत्थी एक-दूसरे को भली-भाँति जान लेने पर ही सुलझ सकेगी।’’
अगले दिन मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ नटवरलालजी के घर पर गया। नटवरलालजी की इच्छा थी कि माणिकलालजी की ओर से पाँच व्यक्ति उनके यहाँ आएँ। इन पाच में एक मैं, दूसरे मेरी धर्मपत्नी और साथ में सरस्वती तथा उसका घर वाला कृष्णदत्त और माणकिलाल का एक अन्य मित्र मनोहरलाल थे। दूसरी ओर से नटवरलालाजी के भी पाँच सम्बन्धी उपस्थित थे।
नोरा अपनी माँ इत्यादि से मिलने भीतर चली गई। नटवरलाल जी ने नोरा के भूषण और कपड़े दिये। माणिकलाल को एक हीरे की अँगूठी और रेशमी पोशाक और साथ ही बीस हजार रुपया नकद दिया। माणिकलाल के पाँचों सम्बन्धियों को जो साथ आये थे, एक-एक हजार रुपया दिया गया।
तत्पश्चात् भोजन हुआ और विदाई हो गई।
|
|||||










