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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘गिरिका जब बड़ी हुई तो चेदिराज वसु ने उससे विवाह कर लिया। महाराज चेदिराज अपने विमान में भ्रमण करने में बड़ी रुचि रखते थे। एक बार वे एक विमान में भ्रमण करते हुए बड़ी दूर निकल गए। दूर एक उद्यान में घूमते हुए, वहाँ के पुष्पों के मकरंद और सुगन्धि के कामोद्दीपन होने से उनका वीर्य स्खलित हो गया। महाराज वसु ने, जिनका विमान में भ्रमण करने से उपरिचर नाम पड़ गया था, अपने वीर्य को व्यर्थ जाने से बचाने के लिए, उसको यन्त्रों द्वारा अर्थात् विधिपूर्वक सुरक्षित कर अपने विमान चालक श्येन द्वारा अपनी पत्नी गिरिका के पास भेज दिया। श्येन विमान में वीर्य लेकर राजधानी की ओर वेग से जा रहा था कि मार्ग में एक अन्य विमान से दुर्घटना हो गई और वह सुरक्षित वीर्य गिर पड़ा। नीचे जल-स्थल था और वहाँ ब्रह्माजी से श्रापित आद्रिका नाम की एक अपसरा के हाथ में यह वीर्य पड़ गया। उसने उसको धारण कर लिया। इससे उसके दो सन्तान उत्पन्न हुईं।

‘‘आद्रिका, देवलोक से दंडित और निर्वासित, इस जल-स्थल में मछेरों के बीच रहती हुई अति घृणित जीवन व्यतीत कर रही थी। वह उन मछेरों में वेश्या के रूप में रहती थी। देवलोक की निर्वासित होने से वीर्य-सिंचन की क्रिया जाननी थी। इसी कारण वह सुरक्षित वीर्य को पहचान गयी और यह समझ कि यह किसी बड़े व्यक्ति का ही वीर्य होगा, उसको धारण कर सन्तानवती बन गई। उसको सन्तान उत्पन्न होने में कष्ट होने लगा तो उसका पेट चीर कर सन्तान निकाली गयी। ये दो बच्चे थे। एक लड़का और दूसरी लड़की।

‘‘दाशंराज, जो उन निषादों का राजा था, ने लड़की का पालन किया। वह लड़की मैं हूँ। मेरे पिता ने मेरा नाम सत्यवती रखा। मैं बाल्यकाल से मछेरों में रहती थी। मछली हमारा भोजन था, अतः हमारे सब के शरीर में से मछली की गन्ध आती थी।’’

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