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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘अपने को एक राजा के वीर्य से अप्सरा की लड़की समझ मैं मछेरों से विवाह के लिए तैयार नहीं होती थी, परन्तु कोई भला पुरुष मेरे शरीर में से निकलने वाली गन्ध के कारण मेरे समीप नहीं फटकता था।’’

‘‘एक दिन मैं नौका में महर्षि पराशर जी को बैठाकर गंगा-पार ले जा रही थी। महर्षि मुझ पर आसक्त हो गए। मैं उनसे संभोग में आपत्ति तो नहीं करती थी, परन्तु मैं विवाह कर ऋषि-पत्नी बनने की इच्छा रखती थी। महर्षि ने मुझे अपनी पत्नी स्वीकार तो नहीं किया, हाँ, यह आश्वसान दिया कि यदि मेरे गर्भ ठहर गया तो मेरी रक्षा करेंगे। उन्होंने यह भी बचन दिया कि इस गर्भ का किसी को पता नहीं चलेगा।’’

‘‘मैं मान गई। उसी नौका में उन्होंने मुझको संभोग किया तथा गंगा के बीच एक द्वीप पर मेरी रक्षा का प्रबन्ध कर दिया। उस द्वीप पर मेरे गर्भ से एक पुत्र हुआ। महर्षि पराशर उस लड़के को ले गये। उन्होंने उसका पालन-पोषण कर और शिक्षा-दीक्षा देकर विद्वान् बना दिया। वे अब महर्षि व्यास कृष्ण द्वैयापन के नाम से विख्यात हैं।’’

‘‘पाराशरजी ने मेरा एक उपकार किया। उन्होंने मेरी चिकित्सा की ओर मेरे शरीर की दुर्गन्धि निकालकर शरीर में एक विचित्र प्रकार की सुगन्धि भर दी।’’

‘‘इस सुगन्धि के कारण ही मेरा देवव्रत के पिता से विवाह संभव हुआ। मेरे विवाह पर महाराज ने यह वचन दिया था और इस वचन के पालन का देवव्रत ने आश्वासन दिया था। यह वचन अब जगत्-प्रसिद्ध है, आप भी परिचित होंगे।’’

‘‘अतः कृष्ण द्वैपायन मेरे पुत्र हैं। यह विचित्रवीर्य की पत्नियों से नियोग करें तो तुम कैसा समझते हो?’’

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