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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘अवसर तो है, परन्तु अवसर और आपद्-धर्म अपने-अपने विचारानुसार ही माना जा सकता है। कोई वर्तमान स्थिति को आपत् काल नहीं भी मान सकते। इस आपद्-धर्म को सब आचार्यों ने एक समान नहीं माना। महाराज मनु इस विषय में लिखते हैं–
अयं द्विजैर्हि विददि्भः पशुधर्मो विगर्हितः।
मनुष्याणामपि प्रोक्तों वेने राज्यं प्रशासति।।१
१. राजा वेन के शासन-काल में मनुष्यों के लिये भी कहे गये इस पशु-धर्म की विद्वान द्विजों ने निन्दा की है।।९-६६।।

‘‘वेन के काल से यह धर्म द्विजों का नहीं रहा। वह पशु-धर्म हैं और निन्दनीय है।’’

मेरी इस विवेचना पर राजकुमार ने कहा, ‘‘परन्तु सूतनन्दन! हमारे कुल में वेन का धर्म नहीं चलता।’’

‘‘महाराज! यह तो मैंने पहले ही निवेदन कर दिया है कुलधर्म भिन्न-भिन्न होते हैं।’’

‘‘आप हमारे कुल के विषय में क्या जानते हैं?’’

‘‘चन्द्रवंशीय कुल में विवाह सन्तानोत्पत्ति के निमित्त नहीं, प्रत्युत विषय-भोग के लिए माना गया है। महाराज नहुष का शची के लिए जीवन खो देना, महाराज ययाति का विषय-भोग के लिए अपने पुत्र का यौवन उधार माँगना, महाराज दुष्यन्त का शकुन्तला को छल द्वारा वश में कर काम-तृप्ति कर, पीछे उसको भूल जाना, महाराजा शान्तनु का वासनाधीन गंगा को पुत्रों की हत्या की स्वीकृति देना और पुनः आप जैसे योग्य पुत्र के होते हुए, वृद्धावस्था में विवाह करना–ये सब बातें आपके कुल-धर्म का निरूपण करती हैं इससे यहीं पता चलता है कि आपके कुल में सन्तानोत्पत्ति गौण है और विषय-वासना मुख्य। अतः नियोग भी इसी अर्थ में माना जायेगा।’’

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