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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तो सीमोल्लंघन हो गया है क्या?’’
‘‘हाँ, इस पर भी यदि महर्षिजी सुन्दर रूपवान होते तो महारानी-जी अपने स्थान पर दासी को न भेजतीं। यह तो वासना-तृप्ति की बात हो गई है, महर्षिजी और महारानीजी में। सन्तानोत्पत्ति गौण हो गई है और काम-तृप्ति मुख्य।’’
राजकुमार देवव्रत इस प्रकार की विवेचना से झेंप गए और बात बदलकर कहने लगे, ‘‘माता सत्यवती यह चाहती हैं कि जब तक ये दोनों बालक सज्ञान नहीं हो जाते, राज-कार्य मैं चलाऊँ। मैं उनके आग्रह को ना नहीं कर सका। अतः मैंने अब राज-कार्य विधिवत् करना आरम्भ कर दिया है। इसी कारण आपको यहाँ बुला लिया है। मेरी इच्छा है कि आप राजकुमार के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करें।’’
१. महर्षि ने इस समागम के विषय में स्वयं लिखा है–
कामोपभोगेन रहस्तस्यां तुष्टिमगादृषिः
तया सहोषितो राजन् महर्षि संशितवतः
उत्तिष्ठन्नब्रवीदेनामभुजिष्या भविष्यसि। आदि॰, १॰५-२६, २७ अर्थात्
कामोपभोग से प्रसन्न तथा संतुष्ट होकर उठे तो बोले, ‘‘अब तुम दासी नहीं रहोगी...।’’
इस समय मैंने कह दिया, ‘‘मेरा एक निवेदन है। मैंने एक पत्र चक्रधरपुर से आपकी सेवा में भेजा था। उसका उत्तर मुझको नहीं मिला।’’
‘‘हमने पाँच सौ स्वर्ण आपको भेजा है। यह कदाचित् अब वापस आ जायेगा। शेष धन आपका अब मिल जायेगा।’’
‘‘परन्तु मैंने वहाँ एक सोमभद्र से ऋण लिया हुआ है। धन तो उनको जाना चाहिए था।’’
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