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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘यह आप स्वयं, अब भेज दीजियेगा। अब आगे आप क्या वेतन लेंगे?’’
‘‘आप आज्ञा कर दीजिए। मैंने तो निवेदन किया था कि ब्राह्मण होने के नाते जो आप देंगे, उस पर सन्तोष करूँगा।’’
‘‘पाँच सहस्त्रस्वर्ण प्रतिवर्ष तथा भोजन, वस्त्र व निवास-स्थान एवं दास-दासियाँ सेवा के लिए।’’
‘‘मुझको स्वीकार है।’’
इस प्रकार बात निश्चित हो गई। मैंने एक पत्र अपने एक सेवक के हाथ पिताजी को लिख भेजा कि अब मैंने विधिवत् हस्तिनापुर की सेवा स्वीकार कर ली है तथा वे और धन देवेन्द्र से भेजा हुआ स्वीकार न करें। इसके साथ ही एक पत्र मैंने देवेन्द्र को लिख भेजा कि मैंने आपका कार्य हस्तिनापुर में करना स्वीकार किया है। वह मैं अब भी यथाशक्ति करने का यत्न करूँगा, परन्तु मैं दो स्थानों से वेतन नहीं ले सकता। आज तक मुझको हस्तिनापुर से एक टका-भर नहीं मिला था। अब यहाँ से नियमपूर्वक वेतन दिया जाना स्वीकार कर लिया गया है। अतः आप कृपा करके भविष्य में मेरा वेतन भेजने का कष्ट न करें।
‘‘इस पर भी आप अपनी इच्छा से सूचित करते रहें और मैं यथाशक्ति उसकी पूर्ति के लिए यत्न करता रहूँगा।’’
इस प्रकार मैं हस्तिनापुर राज्य अर्थात् भीष्मजी की सेवा में चला गया।
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