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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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पाँच सौ स्वर्ण जो हस्तिनापुर से मेरे लिए चक्रधरपुर भेजे गए थे, वे सोमभद्रजी ने ले लिए और इसकी सूचना मुझे मिल गई। इसके पश्चात् मैं एक सौ स्वर्ण प्रतिमास नियमित रूप से भेजता रहा और मोदमन्ती के अत्यन्त प्रेममय तथा विरल-भरे पत्र आते रहे।
महारानी अम्बिका का पुत्र धृतराष्ट्र चक्षुविहीन होने पर भी अति प्रभावशाली और ओजमय था। महारानी अम्बालिका का पुत्र पांडु पीतवर्ण, शरीर से हृष्टपुष्ट, परन्तु अत्यन्त संवेदनात्मक मन रखने वाला बालक था। वह सदैव दूसरों के हित का चितन्न करने वाला और दूसरों के दुःख से दुःखित होने वाला स्वभाव रखता था। इस पर भी मृगया में अति रुचि रखता था।
पहले पाँच वर्ष तक तो बालक प्रायः माँ के पास ही रहते रहे। इस काल में मुझको जहाँ बालकों से मिलने के लिए अन्तःपुर में जाने की स्वीकृति थी, वहाँ महारानियों और राजमाता सत्यवती से मिलने का अवसर मिलता रहता था।
चक्रधरपुर से लौटने के कई मास पश्चात् महारानी अम्बिका से एकान्त में भेंट हुई। अभी तक मुझको आते देख वह दासियों के हाथ पुत्र को छोड़ अपने निजी आगारों में चली जाया करती थीं। इस दिन मैं राजप्रासाद में गया तो कुमार सो रहा था। महारानी अम्बिका वहाँ अकेली बैठी थीं। मुझको आया देख वे जाने लगीं तो मैंने कह दिया, ‘‘आप बैठिये। कुमार तो सो रहा है। मैं कुछ काल पश्चात् आ जाऊँगा।’’
‘‘तो आप कहाँ प्रतीक्षा करेंगे?’’
‘‘अपने निवास स्थान पर। दो घड़ी पश्चात् मैं आ जाऊँगा।’’
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