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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘कोई आवश्यकता नहीं। आप यही ठहरिये।’’

‘‘परन्तु...?’’

‘‘मेरी चिन्ता न कीजिये। परन्तु आपको यहाँ से भागने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता तो मुझको अनुभव होती है। मुझको आपके सम्मुख आँख उठाते लज्जा अनुभव होती है।’’

‘‘क्यों? आपने मेरा कोई अनिष्ट तो किया नहीं।’’

‘‘आप मर्यादा को भूल गये हैं क्या?’’

‘‘विदुर की माताजी को।’’

‘‘नहीं, एक मर्यादा आपके आवास पर एक बार आई थी।’’

‘‘ओह! मैं तो उसे स्वप्न-मात्र ही समझता था।’’

‘‘हो सकता है स्वप्न-मात्र ही हो। परन्तु क्या वह मधुर नहीं था?’’

‘‘एक स्वप्न की मधुरता भी तो स्वप्न-मात्र अर्थात् मिथ्या होती है।’’

‘‘परन्तु उस मर्यादा के लिये वह स्वप्न नहीं, अपितु एक सत्य था। उससे जो अनुभूति उसके मन में उत्पन्न हुई थी, यह अब भी विद्यमान है। मर्यादा जब आप यहाँ आते है, उस अनुभूति को स्मरण कर दुःखी हो उठती है और उस दुःख को मन के भीतर छिपा रखने के लिए यहाँ से भाग जाती है।’’

‘‘तो मुझको मर्यादा से क्षमा माँगनी चाहिये। परन्तु महारानी जी! मैंने मर्यादा को वचन दिया था कि उसका रहस्य किसी से नहीं कहूँगा और मैं अपने वचन पर दृढ़ हूँ।’’

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