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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘उसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ। परन्तु इससे दुःख का तो निवारण तो नहीं होता न।’’
‘‘तो आज्ञा कीजिए, वह दुःख कैसे मिट सकता है? यदि मैं हस्तिनापुर से सदा के लिए चला जाऊँ तो क्या दुःख की निवृत्ति हो जायेगी?’’
‘‘आप दो वर्ष तक दूर रहे। उससे तो दुःख दूर हुआ नहीं था। वहाँ से आपको वापस आए भी तीन वर्ष हो चुके हैं और अभी तक मिटा नहीं।’’
‘‘तो फिर कैसे हो सकेगा, आज्ञा कीजिये।’’
मैं समझती हूँ कि गयी बात अब लौट नहीं सकती। उस दिन आपके इन्कार करने का परिणाम आप देख ही रहे हैं।’’ इतना कह उसने अपने अन्धे पुत्र की ओर संकेत कर दिया। उसकी आँखें डबडबा आई थीं।
‘‘परन्तु मर्यादा ने मर्यादा उल्लंघन क्यों की थी?’’
‘‘उसको विदित नहीं था कि उसकी सास इतने कुरूप और भयंकर आकृति के पुत्र को जन्म दे सकती है’’
समझ रहा था महारानी अम्बिका शिष्टता की सीमा का उल्लंघन करने लगी है। अतः उनको सीमा के भीतर लाने के लिए मैंने कहा, ‘‘महारानीजी! जो कुछ भाग्य में लिखा है, वही तो मिलता है बुद्धिमान बिखर गये दूध पर शोक मनाने के लिए नहीं बैठ जाते। शोक छोड़, नये कर्म संचित करने बैठ जाते हैं।’’
‘‘इस जन्म में जो कुछ आपको मिलता था, वह मिल गया है। आगे के लिए यत्न करिये। भावी जन्म में आज के कर्मों का फल मिल जायेगा।’’
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