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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


महारानी अम्बिका हँस पड़ी। तत्पश्चात् बोली, ‘‘वह किसने देखा है? जो दिखाई दिया है, वह पाने योग्य नहीं। हमारे ज्येष्ठीजी बहुत धीर, वीर, धर्मात्मा और न्यायप्रिय है न? बहुत पुण्य किये हैं उन्होंने और उनके लिए स्वर्ग के द्वारा खुल गये हैं। जीवन का सबसे बड़ा पुण्य उन्होंने तब किया था जब स्वयंवर कर रही निष्पाप कुमारियों को बलपूर्वक उठा लाये थे। हमारी बड़ी बहन अम्बा ने तो जीवन त्याग दिया। उसके उठाकर लाये जाने से वह इतनी अपमानित हुई थी उसके प्रेमी ने उसको अपनी अर्द्धांगिनी बनाने से इन्कार कर दिया। यदि ज्येष्ठजी में लेशमात्र भी न्याय और लज्जा होती तो उसके प्रेमी से लड़ते। उसको हमारी बहन से विवाह करने पर विवश करते अथवा उसकी हत्या कर स्वयं से विवाह कर लेते।

‘आखिर हमने कौन पाप किया था कि बलपूर्वक हमारा एक बालक से विवाह कर दिया। उस दुर्बल, वृद्ध की सन्तान, न्यून आयु वाले के गले में दो सुन्दर कुमारियाँ बाँध दीं। इस प्रकार हमको विधवा बनाने का आयोजन कर दिया।

‘‘इस पर भी उनको अपने किये का पश्चात्ताप नहीं है। यदि हुआ होता, तो या तो हमको अपने भाग्य पर छोड़ देते अथवा स्वयं हमसे नियोग कर सन्तान उत्पन्न करते।’’

‘‘स्वयं तो वचन पालन करके धर्मात्मा बने रहे और हमारे लिए यह अग्नि-परीक्षा उपस्थित कर दी और अब इस सबका यह परिणाम है।’’

मैं इस पूर्ण दुर्भाग्य की गाथा से भली-भाँति परिचित था। इस सब में राजकुमार देवव्रत की अशुद्ध मनोवृत्ति को ही कारण मानता था। देवव्रत से अधिक उसके पिता शान्तनु का दोष था। वृद्धावस्था में अपने योग्य तथा युवा पुत्र के पूर्ण जीवन की आहुति देने के स्थान अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखते तो आज परिवार का चित्र दूसरा होता। परन्तु यह इन्द्रिय-लोलुपता चन्द्रवंशियों के परिवार की विशेष प्रवृत्ति थी।

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