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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इस पर भी मेरा यह निवेदन है कि श्रीमान् स्वयं राज्य सम्भाल लें और इन कुमारों को छोड़ स्वयं सन्तान उत्पन्न करें और अपने पूज्य पिता का वंश चलायें।’’
‘‘और अपने वचन को भंग करूँ?’’
‘‘वचन जिस परिस्थिति में दिया गया था, वह अब नहीं रही। उस समय माता सत्यवती और आपके पिता महाराज शान्तनु यह समझते थे कि उनके नवीन विवाह से ऐसी सबल, बुद्धिवान और चरित्रवान सन्तान उत्पन्न होगी, जो कुरुराज्य का शासन करने के योग्य होगी। यह आशा पूर्ण नहीं हुई, अतएव उस परस्थिति में कहीं गई बात माननीय नहीं होनी चाहिए।’’
‘भीष्म के माथे पर त्योरी चढ़ गई। मैं गम्भीर हो, उनके मुख से आज्ञा होने की प्रतीक्षा करता रहा। मैं समझ रहा था कि मुझको सेवा-कार्य से मुक्त कर राज्य से निकल जाने की आज्ञा हो जायेगी। मैं भीष्मजी की अयुक्ति-संगत और कोरी भावनायुक्त बातें सुन-सुनकर ऊब चुका था। इसलिए मैं सेवा-कार्य छोड़, जाने के लिये तैयार था। परन्तु भीष्मजी के माथे से त्योरी उतर गई और उन्होंने कहा, ‘‘देखिये संजयजी! मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करूँगा। मैं वचन-भंग को भारी पाप समझता हूँ और इस पाप-कर्म के करने में मैं किसी का भी कल्याण नहीं देखता। हाँ, मैं धृतराष्ट्र और पाण्डु को अपनी ही सन्तान मान, उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध करना चाहता हूँ। आप अपनी ओर से पूर्ण यत्न कर उनको राज्य-कार्य वहन करने के योग्य बनाइए।’’
‘‘कल माता सत्यवती ने यह इच्छा प्रकट की थी कि धृतराष्ट्र का राज्याभिषेक हो जाना चाहिये। मैं समझता हूँ, वह होना ही चाहिये और हमको यह प्रबन्ध करना चाहिए कि जब तक धृतराष्ट्र के कोई पुत्र होकर सज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हम सबकी सहायता से धृतराष्ट्र राज्य करें।’’
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