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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘मेरी पाठशाला यह कुछ न कर सकी और न ही उसकी स्वीकृति दे सकी। परिणामस्वरूप मेरी पाठशाला में मेरी पोतियों के अतिरिक्त पढ़ने वाला कोई नहीं रहा। हमारे भण्डार में अन्न चूक गया तो मेरा लड़का जो मेरे साथ पाठशाला में शिक्षा देता था, राजद्वार खटखटाने लगा।’’

‘‘वह नगरपालक के पास पहुँचा। उसके पास पाठशाला की दुर्व्यवस्था का समाचार पहले ही पहुँच चुका था। अब सोम को अपने पास आते देख उसने कह दिया कि हम भी अपनी पाठशाला में नृत्य तथा संगीत की शिक्षा का प्रबन्ध कर दें।’’

‘‘सोम का कहना था, ‘‘श्रीमान्! हम दर्शनशास्त्र पढ़ाते हैं।’’

‘‘दर्शनशास्त्र से क्या लाभ होगा? उसको पढ़कर एक विद्यार्थी क्या उपयोगी कार्य कर सकेगा? संगीत जानने से कम-से-कम किसी वेश्या के गृह में संगीत-प्रदर्शन आदि का कार्य तो कर ही लेगा।’’

‘‘सोम इस उलाहने को सुन चुपचाप वहाँ से चला आया और कुरुदेश के आयुक्तक से मिलने चला गया। आयुक्तक से नगरपालक की बात बताते हुए उसने कहा, ‘‘वे चाहते हैं ब्राह्मण कुमार अब वेश्याओं के कोठों पर भाड़ों की भाँति गाना-बजाना आरम्भ कर दें।’’

‘‘इस पर आयुक्तक का कहना था, ‘नगरपालक का कहना ठीक है। शिक्षा उस वस्तु की दी जाती है, जिसकी लोकोन्नति के लिए आवश्यकता हो। आपके दार्शनिक विषय, जैसे परमाणु एक प्रकार के हैं अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के, आत्मा परमात्मा से भिन्न है अथवा नहीं, आदि पदार्थ परमात्मा है अथवा प्रकृति, ये सब व्यर्थ की बातें हैं। इनके पढ़ने से मानव-समाज को किंचित् भी सुख की उपलब्धि नहीं होती।’’

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