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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
इस दुखी ब्राह्मण के मुख से वर्त्तमान राज्य की यह आलोचना सुन मैं अवाक् रह गया था। मैं उससे पूर्णतया सहमत नहीं था। इस पर भी उसके ये सब आरोप सर्वथा निराधार नहीं थे। मैंने कहा, ‘‘आपके कथन में बहुत-कुछ सत्यता हो सकती है परन्तु धार्मिक, सत्यवक्ता और योग्य व्यक्ति के लिए इस राज्य में अभी भी स्थान है। मैं समझता हूँ कि आपको रुष्ट होने के स्थान राजकुमार भीष्म से मिलना चाहिए। मुझे विश्वास है कि आपके योग्य कुछ-न-कुछ कार्य वे अवश्य ढूँढ़ देंगे।’’
‘‘यह बात आपके मुख से ही शोभा पाती है। आप राज्य के सेवक हैं, अतः राज्य के विषय में यह कहना आपका कर्त्तव्य ही है। इस पर भी मुझको यह चाटुकारी के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत नहीं हुआ।’’
‘‘देखिये ऋषिपुत्र! मेरा पुत्र सोमप्रभ पढ़ा-लिखा विद्वान युवक था। मैं प्रतिष्ठानपुरी में पाठशाला चलाता था। वह पाठशाला कुछ तो मेरे वृद्ध हो जाने के कारण और कुछ प्रजा में आचरण तथा जीवनो-प्रयोगी मूल्य बदल जाने के कारण बन्द हो गयी थी। कोई वेद, ब्राह्मण-ग्रंथ अथवा दर्शनशास्त्र पढ़ने नहीं आता था। इन वस्तुओं को पढ़ने वाले के लिए कोई कार्य नहीं रहा था। प्रायः विद्यार्थी धनुष-बाण चलाना, खड्ग से लड़ना और गदायुद्ध सीखना चाहते थे। कुछ थे जो ज्योतिष की शिक्षा लेना चाहते थे, परन्तु गणित से घृणा करते थे। एक अन्य वर्ग था। इस वर्ग के लोग विद्यालय में भी चोरी करने का अभ्यास करने आते थे। चोरी-चकारी की इस राज्य में महिमा बढ़ रही थी।
‘‘नृत्य तथा संगीत जहाँ सांस्कृतिक कलाएँ समझी जाती हैं, वहाँ वासना प्रधान होती जाती है। सांस्कृतिक होने के नाते बाल, वृद्ध, युवा, नर-नारी सबके मन में इनके लिए रुचि उत्पन्न की जाती है और इनके वासनामय होने के कारण पूर्ण समाज में वासना व्याप्त होने लगी है। विद्यार्थी नर्तकियों के कोठों पर जाकर नृत्य और संगीत देखना अथवा सुनना अपनी शिक्षा का अंग मानने लगे हैं। परिणामस्वरूप उनका जीवन तपस्या, स्वाध्याय और ज्ञान-वृद्धि के निमित्त न रहकर, भोग-विलासमय बन गया है।’’
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