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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
8
गृह में पहुँचकर भूमि-तल पर आगार में वह मुझको ले गया। भूमि पर ही एक चटाई बिछाकर उसने मुझको बैठने को कहा और भीतर आवाज दे दी, ‘‘कणिका! ओ कणिका!!’’
‘‘हाँ, बाबा!’’ एक लड़की ने उत्तर दिया।
‘‘बेटा! जल जाओ। घर में अतिथि आये हैं।’’
इतना कह वह अपने घर के साधन-विहीन होने के लिए क्षमा माँगने लगा। उसने कहा, ‘‘श्रीमान् क्षमा करें। हम अति निर्धन हैं और आपकी कुछ अधिक सेवा नहीं कर सकते।’’
‘‘जल तो सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। आपको संकोच नहीं करना चाहिए। परन्तु क्या मैं जान सकता हूँ कि इस समृद्ध नगर में आपके गृह सें धनाभाव क्यों हैं?’’
इस प्रश्न से वृद्घ विस्मय में मेरे मुख पर देखने लगा। कुछ विचार-कर उसने कहा, ‘‘तो आप जानते नहीं? वह वस्तु, जिसकी नगर अथवा देश में माँग है वह मेरे पास नहीं है।’’
‘‘किस वस्तु की माँग है जो आपके पास नहीं है?’’
‘‘नृत्य, संगीत, चोरी, ठगी, धोखा, अधर्म, चाटुकारी अथवा मान की बिक्री। इनमें से एक भी तो कर्म मैं कर नहीं सका।’’
इस समय वीरभद्र की सबसे छोटी पोती दूध ले आई। दूध पीकर मैंने उस लड़की को प्यार-सहित धन्यवाद कर दिया।
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