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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
वह आँखें नीची किये जा रहा था। कदाचित् उसकी दृष्टि दुर्बल पड़ चुकी थी। मेरी आवाज सुन वह खड़ा हो गया और मेरे मुख पर देखने लगा। मैंने पूछा, ‘‘बाबा! उस गृह में कौन रहता है?’’
‘‘क्यों पूछते हो?’’
‘‘मुझे उसमें रहने वाले किसी पुरुष से कुछ कार्य है।’’
‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘तो आप उसी गृह में रहते हैं?’’
वह वृद्ध अन्यमनस्क भाव में मेरा मुख देखता रह गया। मैंने उसके मन में उठ रहे संशयों का अनुमान लगाकर कहा, ‘‘बाबा! मैं हूँ संजय! महर्षि गवल्गण का पुत्र हूँ। मेरा उस गृह के स्वामी से मिलने में प्रयोजन धर्म-युक्त है। आप ही है उसके स्वामी?’’
‘‘हाँ, मैं वीरभद्र हूँ। मेरे पुत्र सोम का देहान्त हो चुका है और उसके परिवार का पालन-भार मुझको वहन करना पड़ रहा है। एक संजय राजकुमारों का संरक्षक और शिक्षक है। क्या आप वही है?’’
‘‘हाँ बाबा!’’
‘‘तुम देखने में भले युवक प्रतीत होते हो, परन्तु...।’’ वह कहता-कहता रुक गया।
‘‘परन्तु क्या?’’
‘‘कुछ नहीं! आपको क्या काम है? आइये। एक निर्धन ब्राह्मण के घर को पवित्र करिये।’’
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