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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
जब वे वस्त्र लेकर चल दीं तो मुझको समझ आया कि मैं उनको हस्तिनापुर-रूपी विशाल सागर में एक छोटी-सी मछली की भाँति खो रहा हूँ। अतः घबराकर बिना कुछ भी क्रय किये दुकान से निकल गया। दुकानदार के पुकारने पर मैंने ध्यान नहीं दिया।
वे स्त्रियाँ धीरे-धीरे चलते हुए नगर से बाहर की ओर जाने लगीं। मैं भी उचित अन्तर पर उनके पीछे-पीछे चलता गया।
नगर के बाहर, नगर-प्राचीर के कुछ अन्तर पर एक बहुत ही साधारण-से गृह में वे चली गईं।
गृह की अवस्था से मैं समझ गया कि कोई निर्धन परिवार है। इससे मुझको अपने उद्देश्य में सफल होने की आशा बढ़ गई। अब मैं चाहता था कि उस परिवार के किसी पुरुष से मिलूँ। कुछ काल तक उस गृह से दूर, परन्तु द्वार को देखते हुए मैं खड़ा रहा। काफी देर तक उस गृह में से कोई पुरुष नहीं निकला, तो मैं फिर अभी आने का निश्चय कर लौट पड़ा।
इस समय एक वृद्ध व्यक्ति नगर की ओर से उस गृह की ओर आता दिखाई दिया। मुझको संदेह हो गया कि यह उसी गृह का कोई पुरुष है क्योंकि उस ओर, जिस ओर वह जा रहा था अन्य कोई गृह नहीं था। वह वृद्ध भी हाथ में एक झोला लिए था, जिसमें वह कुछ क्रय करके ला रहा था। इससे भी मेरे अनुमान की पुष्टि हो गई कि यह कोई निर्धन परिवार ही है।
मैं मार्ग-तट पर खड़ा हो उसको आते हुए देखने लगा। जब वह मेरे समीप से निकलने लगा तो मैंने उसको पुकार लिया, ‘‘भद्र मैं आप से कुछ पूछना चाहता हूँ।’’
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