|
उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
इस पर राजमाता हँस पड़ी। हँसकर कहने लगीं, ‘‘उतनी ही अच्छी है जितनी वह नाग-कन्या थी अथवा किरात-कन्या शील थी?’’
‘‘जी नहीं। इसकी अच्छाई उनकी अच्छाई से भिन्न प्रकार की है। उसको आपके सम्मुख लाकर उपस्थित कर दूँगा।’’
इस प्रकार उस समय मैंने अपनी जान छुड़ाई। उस पर भी अब चिन्ता लग गई कि लड़की कहाँ से लाऊँ। मैं अपने रूप-रंग, नखशिख का बहुत ही हीन अनुमान लगाता था। मेरा विचार था कि मुझको पत्नी मिलनी कठिन है, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं थी। वास्तव में सुन्दर, चरित्रवान युवक मिलने कठिन थे और थोड़ा-सा ही यत्न करने पर मुझको सफलता मिल गई।
उसी समय से मैंने अपने आस-पड़ोस तथा नगर में कुमारी कन्याओं को देखना आरम्भ कर दिया। दो-तीन दिनों में ही मुझको सफलता मिल गई। मैंने नगर के उद्यानों, दुकानों, परिचितों के गृहों, नदी तट और जलाशयों के तटों पर भ्रमण करना आरम्भ कर दिया था। एक दिन मैं एक दुकान में कुछ वस्त्र खरीदने के बहाने गया तो वहाँ एक प्रौढावस्था की स्त्री को अपनी लड़कियों के साथ वस्त्र क्रय करते देखा। तीन लड़कियाँ थीं। भँझली मुझे बहुत भली लगी। अतः मैं विचार करने लगा कि कैसे उनके गृह का पता करूँ और फिर इनके पिता से मिलकर अपनी माँग उपस्थित करूँ।
जब तक वे वस्त्र क्रय करती रहीं, मैं शान्त, दुकानदार से उनके अवकाश पाने की प्रतीक्षा करता रहा। इस समय मैं उनसे परिचय प्राप्त करने का अवसर ढूँढ़ता रहा। वे सब इतनी शान्त-चित्त वस्त्र खरीदने में लगी रहीं कि उनको इधर-उधर की बातों में रुचि तक नहीं थी।
|
|||||










