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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
अतः मैंने कह दिया, ‘‘अपने ऊपर राजमाता की इतनी कृपा के लिए मैं उनका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। परन्तु मेरा निवेदन है कि विधिवत् विवाह के लिए मैंने एक कन्या का निर्वाचन किया हुआ है। मैं उससे ही विवाह करना चाहूँगा।’’
‘‘तो दो विवाह कर लीजिएगा। हमने इस लड़की के माता-पिता को वचन दिया है कि उनकी लड़की का विवाह आपसे करा देंगे।’’
‘‘यह तो माताजी! एक समस्या बन जायेगी। पिछली दोनों स्त्रियाँ मुझको छोड़कर चली गई है। इससे आत्म-विश्वास नहीं रहा। मैं जब एक के लिए भी अयोग्य सिद्ध हुआ हूँ तो दो को कैसे सन्तोष दे सकूँगा?’’
‘‘मेरा निवेदन है कि इस लड़की के लिए कोई अन्य युवक ढूँढ़ लीजिए और मुझको अपनी निर्वाचित कुमारी से ही विवाह कर लेने की स्वीकृति दीजिये।’’
‘‘कौन है वह?’’
वास्तव में अभी कोई ऐसी लड़की मेरे विचार में नहीं थी। राजमाता द्वारा नियत विवाह से बचने के लिये मैंने झूठ बोला था। अब उस झूठ को छिपाने के लिए मैंने एक और झूठ बोला। मैंने कहा, ‘‘तो आप उसको दर्शन देना स्वीकार करेंगी? एक दिन मैं उसको आपकी सेवा में उपस्थित कर दूँगा।’’
‘‘क्या वह बहुत सुन्दर है?’’
‘‘वह बहुत अच्छी है।’’
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