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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तब ठीक है। मुझे खेद है कि मैं एक किरात-कन्या को संतुष्ट नहीं कर सका। एक नाग-कन्या से मेरा विवाह हुआ था। वह भी अब किसी दूसरे नाग युवक के पास है।’’
‘‘नाग-कन्या से विवाह हुआ भी था क्या?’’
‘‘हाँ, जैसे उनकी जाति में होता है।’’
तभी तो उनकी जाति में जैसे टूटता है, वैसे आपका टूट गया है।’’
‘‘यही तो मुझको दुःखकारक प्रतीत हो रहा है। इन दोनों युवतियों ने मुझसे कुछ दोष देखा है, जिससे वे मुझको छोड़कर चली गयी है।’’
‘‘संजयजी! यह इन स्त्रियों की बात नहीं, प्रत्युत सभी स्त्रियों का स्वभाव है। वे स्वभाववश स्थिर-चित्त नहीं होती। यदि समाज, धर्म, और संस्कृति का बन्धन न हो तो कोई भी स्त्री एक पुरुष के पास रहकर संतुष्ट न हो। यही कारण है कि धर्म-व्यवस्था के अनुसार विधिवत् विवाह में बँधी स्त्रियाँ अपने पति को छोड़ नहीं सकती।’’
इस सिद्धान्तात्मक बात से मैं सहमत नहीं था, परन्तु राजमाता से युक्ति करना शोभा नहीं देता था। मुझे चुप देख राजमाता कहने लगी, ‘‘जब से आपका पत्र शील के विषय में मिला है, हम आपके विषय में ही विचार करते रहे हैं। हमने आपके लिए एक अतिसुन्दर कुमारी कन्या ढूँढी है। आप उससे विवाह करेंगे तो हमारा विश्वास है कि आप जीवन-भर-सुखी रहेंगे।’’
यह समाचार सुन मेरे कान खड़े हो गए। मुझको अपने विवाह का प्रबन्ध राज्य की ओर से किया जाना पसन्द नहीं था। मैं मन में विचार करने लगा कि यह स्त्री अपना और अपने बच्चों का विवाह तो इस प्रकार कर नहीं सकी, जिससे जीवन-भर सुख भोगती, दूसरों के निजी विषयों में अनधिकार हस्तक्षेप कर रही है।
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