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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


शील में एक गुण था। वह मेरा आदर करती थी और बाहरी व्यक्तियों के सम्मुख, जो मुझसे मिलने आया करते थे, मुझसे आदरयुक्त दूरी पर खड़ी रहती थी।

मेरा उससे घनिष्ठतम सम्बन्ध बन गया और दो वर्ष तक वह मेरे पास रही। एकाएक राजमाता की आज्ञा आई और शील को मेरी सेवा से निकाल दिया गया। मुझे इससे विस्मय हुआ और मैंने राजमाता के पास उसको अपने पास रहने देने की स्वीकृति के लिए प्रार्थना-पत्र भेज दिया। उसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।

एक दिन कुमारों की शिक्षा के लिए मैं राजप्रासाद में गया हुआ था कि राजमाता मेरे पास आयीं और कहने लगीं, ‘‘संजयजी! शील दासी से बहुत प्रेम हो गया है क्या?’’

‘‘वह बहुत अच्छी है, माताजी!’’

‘‘उसका हमने एक किरात-युवक से विवाह कर दिया है और वह बहुत प्रसन्न है।’’

मुझे इस पर विश्वास नहीं आया। इस पर भी मैं इस विषय में राजमाता से कुछ कहना उचित नहीं समझता था। राजमाता ने पुनः कहा, ‘‘हमारी बात का विश्वास नहीं हुआ न?’’

‘‘अविश्वास करने में कोई कारण नहीं। पर माताजी! उस किरात युवक की पत्नी बन वह वास्तव में प्रसन्न है क्या?’’

‘‘वास्तव-अवास्तव की बात तो हम जानते नहीं। वह संतुष्ट अवश्य है। मुख से तो ऐसा ही कहती है।’’

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