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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘एक बार कुछ सैनिक हमारे वन में मृगया के लिए आये। उन में से एक ने मुझसे बलात्कार करना चाहा। कुहुक समीप खड़ा था। उसने बाधा डाली। इस पर उस सैनिक के साथ उसका युद्ध हो गया।’’
कुहुक के पास कोई शस्त्र नहीं था। उस सैनिक के पास एक लम्बा-सा खड्ग था। वह खड्ग से लड़ता रहा और युद्ध में कुहुक मारा गया। इसके पश्चात् हमारे गाँव के सब युवक कुहुक की मृत्यु का प्रतिकार लेने ने लिए उन सैनिकों से लड़ने लगे।
‘‘उस लड़ाई में भी सैनिक विजयी हुए। इस युद्ध के प्रतिकार में सैनिक हमारे गाँव की सब युवा लड़कियों को पकड़कर हस्तिनापुर ले आए और हमें राजमाता को भेंट कर दिया।’’
‘‘इस घटना के पश्चात् तो मुझको कोई भी नगर का रहने वाला सुन्दर प्रतीत नहीं हुआ। इस पर भी आपकी बात दूसरी है।’’
‘‘मेरी बात क्यों दूसरी है?’’
‘‘यह मैं बता नहीं सकती। मैं समझती हूँ कि आप सैनिक नहीं है। राज्य परिवार से सम्बन्धित भी नहीं है। साथ ही आप बहुत अच्छा चरित्र रखते हैं।’’
‘‘मैं राज्य-परिवार का सेवक हूँ।’’
‘‘मैं भी सेविका हूँ। एक सेविका का सेवक को पसन्द करना विस्मय करने की बात नहीं हो सकती।’’
इसके पश्चात् वह दासी प्रतिदिन मेरे समीप आती गयी और मुझको बहुत भली लगने लगी। वह कृष्ण-वर्ण अवश्य थी, इस पर भी उसकी रूप-रेखा आकर्षक थी। मेरा उसके साथ प्रेम हो गया।
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