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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘मैं इस नीच जाति की कुमारी आप-जैसे श्रीमानों की शिष्टता के विषय में क्या जानूँ महाराज! मुझको क्षमा कर दीजिए, परन्तु किसी सुन्दर युवक को देख प्रसन्नता का प्रतीक है।’’

‘‘तो तुम सब युवकों को देखकर मुस्कराया करती हो?’’

‘‘नहीं महाराज! केवल सुन्दर युवकों को देखकर।’’

‘‘अच्छा? और कौन सुन्दर प्रतीत हुआ है तुमको इस नगर में?

‘‘इस नगर में तो आप सबसे सुन्दर हैं। हाँ, हमारे गाँव में एक युवक था। उसका नाम था कुहुक। परन्तु वह मेरी रक्षा करता हुआ मारा गया।’’

इतना कहते-कहते वह पुनः मुस्करायी। मैंने विचार किया कि इसको मुस्कराने से मना करना इसके साथ अन्याय करना होगा। किसी को प्रसन्न होने से रोकना न्याय-संगत नहीं।

मुझको चुप देखकर उस ने अपनी कथा सुना दी। उसने कहा, ‘‘हम वन में एक छोटी-सी बस्ती में रहते थे। हमारा परिवार वन-पशुओं की मृगया पर निर्वाह करता था उन पशुओं का माँस हम खाते थे और उनकी खालें नगर में बेच जाया करते थे। खालों के धन से हम अन्न-अनाज खरीदा करते थे।

‘‘कुहुक भी उसी गाँव का युवक था। मैं उसको बहुत पसन्द करती थी। बचपन से उसके साथ खेली थी। वह मुझको अपनी बहन मान मुझसे स्नेह करता था।’’

‘‘यौवन के पदार्पण पर मैंने उससे प्रेम करना चाहा। उसने इनकार कर दिया। इससे मुझे निराशा हुई। परन्तु उसका स्नेह मुझ पर बना रहा।’’

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