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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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मुझको हस्तिनापुर आये दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि चक्रधरपुर को भेजा हुआ धन लौटने लगा था। इस पर मैंने सोमभद्रजी के नाम पत्र लिखा था और यह पूछा था कि मोदमन्ती को कब लेने आऊँ?
सोमभद्रजी का उत्तर आया, ‘‘मोदमन्ती ने हमारी इच्छा के बिना एक अन्य, नाग-जाति के युवक से विवाह कर लिया है। यही कारण है कि मैं तुम्हारा स्वर्ण लौटा रहा हूँ।’’
इस समाचार से मुझको अत्यन्त दुःख हुआ। मैं वास्तव में मोद से बहुत ही प्रेम करता था और जैसा प्रेममय व्यवहार उसका मेरे साथ रहा था वह देख उसके दूसरा विवाह करने की आशा नहीं करता था। इस बीच उसने एक बार भी तो यह नहीं लिखा था कि मैं उसको अपने पास बुला लूँ और इस सब समय वह मेरा धन स्वीकार कर प्रयोग में लाती रही थी।
यद्यपि मोदमन्ती के दूसरे विवाह पर मुझको बहुत दुःख हुआ था, इस पर भी मैं अपने कार्य में इतना व्यस्त था कि शीघ्र ही मोद मेरे मस्तिष्क से निकल गई। मोद के भूलने में मेरी एक दासी, जो राज्य की ओर से मुझको मिली थी, एक बहुत बड़ा कारण बन गई। वह लगभग उन्नीस-बीस वर्ष की किरात-जाती की कन्या थी। जब से वह मेरी सेवा में आई, मुझको देख मुस्कराती रहती थी। पहले तो मुझको उसका मुस्कराना भला प्रतीत नहीं हुआ और एक दिन मैंने उससे पूछ लिया, ‘‘शील! तुम मुझको देख दाँत क्यों दिखाती हो?’’
इस पर वह हँसकर पूछने लगी, ‘‘इनको देख आपको कष्ट होता है क्या?’’
‘‘कष्ट तो नहीं, परन्तु यह सब कुछ विचित्र प्रतीत होता है। ’’
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