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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘आप अभी विश्राम तो करिये। सब-कुछ बताऊँगी। अब तो आ ही गई हूँ।’’
हम भीतर गये और मैं स्नानादि से निवृत्त होने में लग गया। तत्पश्चात् भोजन हुआ और भोजनोपरान्त मैं भीष्मजी से मिलने चला गया। वहाँ से बहुत रात गए लौटा तो मैंने नील और मोद, दोनों को प्रतीक्षा करते पाया। मैंने मोद से पूछा, ‘‘तुम सोयी नहीं?’’
‘‘मैं आपकी प्रतीक्षा में थी, इसी कारण मुझे नींद नहीं आई।’’
‘‘परन्तु मैं तो अब विश्राम करना चाहता हूँ। मैं बहुत थक गया हूँ। तुम भी अब सोओ। कल तुम्हारा और तुम्हारे पिताजी का पूर्ण वृत्तान्त सुनूँगा।’’
इस पर मोद उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘एक को आप भूल गये प्रतीत होते हैं।’’
‘‘नीलाक्ष को न? मैं भूला नहीं हूँ, परन्तु उसका सम्बन्ध तुम्हारी कथा से है न? वह तुम्हारी कथा का एक अंग है। आज तो तीस कोस की यात्रा कर आया हूँ और साथ ही राजकुमारी से वार्त्तालाप में इतना समय व्यतीत हो गया है कि मैं थककर चूर-चूर हो गया हूँ।’’
इतना कह मैं अपने शयनागार में चला गया। नील मेरे पीछे-पीछे वहाँ आ गई। मैं शैया पर लेटा तो वह मेरे पाँव दबाने लगी।
‘‘मैंने पूछा, ‘नील! मोद कब आई थी?’’
‘‘आपके प्रयाग के लिए प्रस्थान करने के दूसरे दिन ही यहाँ पहुँच गई थी। मैं इसको घर पर रखने के लिए तैयार नहीं थी, परन्तु जब यह परदेश में अपने को निस्सहाय और निराश्रय बताने लगी तो मैंने इसको रख लिया। यह आपकी पूर्व-परिचिता तो है ही।’’
‘‘इसने और कुछ भी बताया है तुमको?’’
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