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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं कुमारों को भ्रमणार्थ लेकर प्रयागराज गया हुआ था। गंगा-यमुना के संगम पर स्नान और वहाँ पर वैदिक ऋषि-आश्रमों के दर्शन करना मुख्य प्रयोजन था। साथ में दोनों महारानियाँ भी थीं। दोनों महारानियों के प्रति तथा कुमारों के प्रति मेरी योजना सफल हो रही थी। मैं उनके मन पर चन्द्रवंशीय धर्म और वैदिक धर्म में अन्तर अंकित कर रहा था और वे समझते जा रहे थे। तीर्थयात्रा पर राजकुमारों को ले जाना मेरी योजना का अंग था। इससे पहले मैं उनको हरिद्वार, तपोवन तथा गन्धमादन पर्वत पर अपने पिताजी के आश्रम पर भी ले जा चुका था। इस बार प्रयागराज महारानी अम्बिका तथा अम्बालिका भी साथ गयी थीं। साथ में बीसियों सैनिक, दास-दासियाँ भी थीं।
इस भ्रमण में मुझको अनेक ऐसे अवसर मिले, जब मैंने महारानियों के मन में वैराग्य-संचार करने का यत्न किया। उनको अपने जीवन पर सन्तोष तथा भावी जीवन को उच्च बनाने के उपायों पर उपदेश दिये।
हमारा यह भ्रमण अति सफल रहा। जब हम हस्तिनापुर लौटे तो राजकुमार तथा महारानियाँ अति प्रसन्न थीं।
मैं अपने गृह पर पहुँचा तो मेरे आने का शब्द सुन नील और मोद दोनों गृह के प्रांगण में आ पहुँचीं। मैं मोद को देख अवाक् खड़ा रह गया। मेरे आश्चर्य और विस्मय को देख नील बताने लगी, ‘‘यह कहती है कि आपके पिता के मित्र की पुत्री है और आपकी सखी है।’’
‘‘हाँ, ठीक कहती है।’’ मैंने अपने को सँभालकर कहा, और पश्चात् मोद से पूछने लगा, ‘‘कब आई हो मोद! और तुम्हारे पति-देव कहाँ है।’’
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