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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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वीरभद्र की मँझली पोती का नाम था नीललोचना। उससे मेरा विवाह हो गया। विवाह से पूर्व मैंने राजमाता को उसे दिखा दिया।
राजमाता उससे कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुईं, परन्तु मैंने नीललोचना की प्रशंसा कर उनका मुख बन्द कर दिया। तत्पश्चात् मेरा विवाह हो गया।
नीललोचना मोद से सर्वथा भिन्न प्रकृति रखती थी। मोद तो मेरे साथ चिपटी रहती थी। नील एकान्त-सेवन अधिक पसन्द करती थी। इस पर भी वह मेरी इच्छाओं की पूर्ति में संलग्न रहती थी।
मोद आँधी के समान आती थी और वायु की भाँति मुझको चारों ओर से घेरे रहती थी। नील पूर्णिमा के चन्द्र की भाँति दूर बैठी हुई अपनी शीतल किरणों से मुझको तृप्त करती रहती थी।
मुझको नील अधिक पसन्द थी। वह मेरे पठन-पाठन कार्य में बाधक न बन सहायक ही होती थी। प्रायः मेरे लिए ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ बनाती रहती थी। वह पढ़ी-लिखी विदुषी थी। इसके विपरीत मोद की शिक्षा बहुत कम थी और बल, छल अथवा प्रेम से बाहर भी जाना पड़ने लगा था। कुमारों की शिक्षा के निमित्त उनको भ्रमण के लिए ले जाना पड़ता था। इस पर नील ने कभी आपत्ति नहीं की थी और मेरे लौटने के समय सदैव द्वार पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही होती थी। कहीं इस समय मोद मेरी पत्नी होती तो मुझको अपने कर्त्तव्य के पालन में भारी बाधा खड़ी हो जाती।
इस प्रकार विवाह हुए चार वर्ष व्यतीत हो गये। मुझको चक्रधरपुर से आए नौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। नीललोचना से मुझे दो सन्तान प्राप्त हो चुकी थीं। एक लड़का था और दूसरी लड़की। इस समय अचानक मोदमन्ती चक्रधरपुर से वहाँ आ पहुँची।
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