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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘परन्तु इस समय मैं अपने एक कार्य से आया हूँ। मुझको आपसे कुछ काम है। बात यह है कि राजमाता मेरा विवाह किसी अपनी पसन्द की कन्या से करना चाहती है। मैं उनकी पसन्द तथा सूझ-बूझ पर कुछ अधिक विश्वास नहीं रखता। इस कारण उनकी बात को टालने के लिए मैंने उनसे कह दिया था कि एक अन्य लड़की से मेरा विवाह निश्चित हो चुका है। इस पर उन्होंने यह आज्ञा दी है कि मैं उनको वह लड़की दिखाऊँ जिससे मैंने विवाह का वचन दिया है।
‘‘पण्डितजी! यथार्थ बात यह है कि मैं अभी कुछ समय तक विवाह करना नहीं चाहता था। वस्तुतः मेरा किसी लड़की से वचन नहीं हुआ। अब राजमाता की आज्ञा से मैं अपने लिए कोई सुशील, सभ्य और सुशिक्षित कन्या ढूँढ़ रहा हूँ। आज अकस्मात् आपकी पतोहू अपनी कन्याओं के साथ एक वस्त्र-विक्रेता की दुकान पर दिखाई दी। उनमें से एक, कदाचित् मँझली, मुझे बहुत भली लगी है। उसके पिता से मिलकर विधिवत् विवाह कर उसको धर्म-पत्नी बनाने के लिए इधर चला आया हूँ। उस लड़की के बाधा से अब मेरा निवेदन है कि कृपा कर विवाह की स्वीकृति दें।’’
इस पर वीरभद्र कुछ गम्भीर विचार में पड़ गया। कुछ देर तक विचारकर उसने कहा, ‘‘आप जानते हैं कि मैं दहेज आदि में कुछ नहीं दे सकता।’’
‘‘क्या दहेज का मूल्य लड़की से अधिक होता है? आप अपनी पोतियों का अपमान कर रहे हैं।’’
‘‘तो आप बिना किसी दहेज के विवाह स्वीकार करेंगे?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘बड़ी लड़की से क्यों नहीं?’’
‘‘मैंने मँझली को ही पसन्द किया है।’’
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