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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘यह उसकी प्रकृति है।’’
‘‘पर वह तो आपकी पत्नी है।’’
‘‘अब वह किसी अन्य की पत्नी है।’’
‘‘उसने उसको मार-मारकर घर से निकाल दिया है।’’
‘‘यह उसने तुमको बताया है?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘पर मैं इसमें क्या कर सकता हूँ। देखो नील! मैं नीलाक्ष को तो यहाँ बुला लूँगा। वह यहाँ रहेगा और अन्य बच्चों के साथ शिक्षा पायेगा। परन्तु मैं इसको नहीं रख सकता।’’
‘‘तो इस बेचारी का क्या बनेगा?’’
‘‘मैं क्या जानूँ?’’
‘‘नहीं जी! इसका उद्धार कर दीजिए।’’
‘‘अर्थात् उसको पुनः अपनी पत्नी बना लूँ?’’
‘‘क्या हानि है? वह अभी भी मुझको अधिक सुन्दर है।’’
‘‘शरीर से ही न। परन्तु मन से कलुषित है।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि वह भूलकर बैठी थी और अब अपने किए पर पश्चात्ताप कर रही है।’’
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