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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तुमको विश्वास है उस पर?’’
‘‘अविश्वास के लिए कोई कारण नहीं। यहाँ यह अकेली है। इस नगर में अकेली रहने का अर्थ है, वेश्या बन जाना। क्या यह उचित होगा?’’
‘‘मुझको अब उस पर विश्वास नहीं रहा। इस पर भी यदि तुम कहती हो और वह एक भली निष्ठावान् पत्नी बनकर रहने का आश्वासन दे, तो मैं मान जाऊँगा।’’
अगले दिन मोद सब बातें मान गई और मैंने उसको एक पृथक् आगार रहने के लिए दे दिया। परन्तु कुछ ही दिनों में वह अपने दाँत दिखाने लग गई। वह मुझको पूर्ण रूप से अपने अधीन करने का यत्न करने लगी। नील को मेरी संगत में देख ईर्ष्या करने लगी और अन्त में उसने नील के विषय में सत्य-असत्य निन्दात्मक बातें कहनी आरम्भ कर दीं। इससे मुझे क्रोध चढ़ आया। मैंने उसको स्षष्ट कह दिया, ‘‘मोद! अब तुम वह नहीं रही जो पहले थीं। इस प्रकार तुम्हारा यहाँ निर्वाह नहीं हो सकता। तुम पर-पुरुष से तो सम्बन्ध रख ही चुकी हो, साथ ही अनृत भाषण भी करने लगी हो।’’
‘‘ये दोनों दोष आपके कारण ही मुझमें आये हैं। न आप मुझको छोड़कर आते और न मैं किसी अन्य से सम्बन्ध बनाती। इसी प्रकार इस कुरूप नील से आप मेरे सम्मुख प्यार न करें तो मैं ईर्ष्या न करूँगी और न ही मुझे झूठ बोलने की आवश्यकता रहेगी।’’
‘‘देखो मोद! मैंने तुमको नहीं छोड़ा था। तुमने मुझको छोड़ दिया था। मैं तुमको कई बार लिख चुका था कि तुम आ जाओ। परन्तु तुम अब आई हो। यदि पहले ही आ जातीं तो किसी ने मना करना था क्या?
‘‘अब इस भली स्त्री से मैं विवाह कर चुका हूँ। मेरे इससे दो बच्चे हैं। मैं इससे प्रेम भी करता हूँ। इस कारण इसको छोड़ नहीं सकता। तुमको भी मैंने अपने पास रखा है तो इसकी अनुमति और कृपा से ही रखा है।’’
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