|
उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘तो मैं उसकी दया के फलस्वरूप यहाँ पड़ी हूँ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तब दो में से एक बात होगी। या तो आप उसको छोड़ दें या मुझको छोड़ दीजिए।’’
‘‘मैं नील को नहीं छोड़ूँगा। मैंने तुमको पहले भी नहीं छोड़ा था और अब भी नहीं छोड़ूँगा। पहले भी तुम ही छोड़ गई थी और अब भी तुम चाहो तो छोड़कर जा सकती हो।’’
इस बार मोद ने अति आर्कषक मुद्रा बनाकर कहा, ‘‘आप देखते नहीं कि मैं कितनी सुन्दर हूँ!’’
‘‘तुम मन में अति कुरूप हो, मोद! जिस थाली में खा रही हो, उसी में छिद्र कर रही हो। समझ लो यह नहीं हो सकेगा।’’
उसी रात वह मेरा घर छोड़कर चली गई। अगले दिन प्रातःकाल ही वन-रक्षक उसका आधा खाया शरीर लेकर नगरपालक के पास पहुँचा। मुझको सूचना दी गई। उसके वस्वों में एक पत्र मेरे नाम था, जो उसके पिता ने मुझे देने के लिए उसके द्वारा भेजा था। इसी कारण मुझको उसका परिचित समझ बुलाया गया। मैंने उसको पहचान लिया।
मुझे नगरपालक ने बताया कि प्रातः वन-रक्षक वन की देश-भाल के लिए गया हुआ था, तब यह शव किसी वन पशु द्वारा खाया हुआ मिला। मोद का इस प्रकार अन्त होते देख मुझको दुःख तो हुआ, परन्तु इसमें मैं किसी प्रकार भी दोषी नहीं था।
इसके कुछ काल पश्चात् मैं नीलाक्ष को हस्तिनापुर ले आया।
|
|||||










