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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

10

मैं दोनों राजकुमारों को राजधर्म की शिक्षा देता था। विदुर को तो राजनीति में बिलकुल रुचि नहीं थी। उसका पूर्ण ध्यान धर्म, यज्ञ, मीमाँसा इत्यादि विषयों में लगा रहता था।

धृतराष्ट्र तथा पांडु परस्पर बहुत स्नेह रखते थे और राज्य को एक-दूसरे के साँझ में भोग करते हुए अति प्रसन्न थे।

जब सत्यवती ने भीष्मजी का यह निर्णय सुना कि दोनों में से जिसका पुत्र बड़ा होगा, वह राजगद्दी पर बैठेगा तो वह धृतराष्ट्र का विवाह शीघ्र करने का विचार करने लगी।

कभी-कभी मैं विचार करने लगता था कि यह स्त्री क्यों अपना व्यवहार अस्वाभाविक तथा अयुक्तिसंगत बनाये हुए हैं। मुझको उसमें शिक्षा का अभाव ही कारण समझ में आया।

इसके साथ भीष्मजी की एक भावना-मात्र पर, इस राज्य को अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में दे देने की बात पर मुझे दुःख ही होता था।

राजमाता सत्यवती के मस्तिष्क में धृतराष्ट्र के विवाह की धुन सवार हो गयी। उसने भीष्मजी की नाक में दम कर दिया। मुझको यह सब विदित था। इस पर भी मैं चुप था, वास्तव में परिवार की बातों में मुझसे सम्मति ली तो जाती थी, परन्तु मानी कभी नहीं जाती थी। मेरी सम्मति राजमाता के सदैव प्रतिकूल होती थी। मैं यह समझता रहा था कि मुझको किसी दिन भी सेवा-कार्य से पृथक् कर दिया जायेगा। परन्तु मेरा कुमारों को शिक्षा देने का ढंग अति श्रेष्ठ था। इस कारण मुझको सहन किया जा रहा था। एक दिन मुझको यह भी पता चला कि महारानी अम्बिका सदा मेरे पक्ष में होती थी। मैं राजकुमारों को वन-विहार कराकर राजप्रासाद में लेकर गया तो महारानी अम्बिका से सामना हो गया। वे मुझको देख खड़ी हो गयी। और राजकुमारों से पूछने लगीं, ‘कहाँ गये थे कुमार?’

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