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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


इस पर मैंने पूछ लिया, ‘यदि सुरराज किसी प्रकार की सन्धि की अपेक्षा करें, तो क्या किया जाये?’’

‘‘सन्धि की जा सकती है, परन्तु सन्धि की शर्त हमको विदित हो जानी चाहिए।’’

‘‘तो श्रीमान्! कुछ दूत पूर्ण मार्ग-भर में स्थान-स्थान पर नियुक्त कर दें, जिससे वहाँ से मेरा संदेश तुरन्त यहाँ भेजा जा सके।’’

‘‘इसकी आवश्यकता नहीं। आपके साथ पाँच व्यक्ति हम भेज रहे हैं। आप वहाँ ठहरियेगा और हमको समाचार भेजते रहियेगा।’’

मुझको सन्देह हो गया कि पुनः मुझे देश से निर्वासित किया जा रहा है। मुझको महारानी अम्बिका का कथन स्मरण हो आया और ऐसा प्रतीत हुआ कि यह सन्धि तथा सन्देश की बात धोखा देने के लिए है।

इस पर भी मेरे पास साधन नहीं थे, जिनसे यह जान सकता कि मेरा यह सन्देह सत्य है अथवा नहीं। मैंने जाने की तैयारी कर दी।

जाने से पूर्व मैंने नील को समझा दिया कि जब तक मेरा मासिक वेतन उसको मिलता रहे वह वहाँ रहे। ज्यों ही वेतन बन्द हो, वह बच्चों को लेकर मेरे पिताजी के आश्रम पर चली जाये और वहाँ से मुझको सूचना भेज दें।

इस प्रकार निश्चय कर मैं हरिद्वार तक रथ पर और आगे पैदल ही चल पड़ा। अमरावती की यात्रा डेढ़ मास में पूरी हुई।

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