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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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इस बार देवलोक में मुझको राजप्रासाद के बाहर एक गृह में निवास मिला। वहाँ पहुँचने के दस दिन पश्चात् सुरराज से भेंट हुई। जब मैं सुरराज के सम्मुख उपस्थित हुआ तो वे खिलखिलाकर हँस पड़े।
मैंने नमस्कार किया तो वे कहने लगे, ‘‘देखो संजय! छोटों के साथ रहने से तुम भी छोटे हो गये हो। पिछली बार जब तुम आये थे, तो तुमने ब्राह्मण होने के नाते मुझे आशीर्वाद दिया था। आज तुम राजदूत होने के आते हमको प्रणाम करने के लिए बाध्य हुए हो।’’
‘‘ठीक है महाराज! जब मैं आपकी सेवा में था, मैं बड़ा था। अब मैं कौरवों की सेवा में जाकर छोटा हो गया हूँ, इस पर भी मेरा तो यह कहना है कि मैंने यह छोटापन जान-बूझकर एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वीकार किया है। मैं इस सेवा में इस कारण गया हूँ कि मैं एक ब्राह्मण होने के नाते दूसरों को कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करूँ। आपकी सेवा में मुझको विघटन कार्य, जो मेरी प्रकृति के विरुद्ध था-करना पड़ रहा था।’’
‘‘एक हिंसक पशु का वध करना क्या विघटन कार्य है? संजय! विष को जलाकर भस्म कर देना पाप है क्या? विष दग्ध करने से क्या विघटन होता है क्या इससे उनकी रक्षा नहीं होती, जिनको विष मिलने वाला है?’’
‘‘परन्तु महाराज! कुरु-सन्तान हिसक जन्तु नहीं। वे सभ्य तथा शिक्षित मानव है। उनमें मन तथा बुद्धि है और यदि इस समय उनमें कुछ बुराई है तो वह थोड़े से प्रयत्न से ही दूर की जा सकती है।’’
‘‘वे पशु हैं।’’ इन्द्र का कहना था, ‘‘उनके साथ मानवों का-सा व्यवहार करना भले मनुष्यों के साथ अन्यायाचरण हो जायेगा।’’
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