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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


मैं उस मादक वातावरण में अपनी निष्ठा और संकल्प को भूलता जाता था। सुरराज लम्बे-लम्बे पग उठाते हुए चले जा रहे थे। यदि मुझे उनके पीछे-पीछे न जाना होता तो प्रांगण की एक पुष्करिणी में स्नान तथा कल्लोल करती नग्न सुन्दरियों को देख, वहीं खड़ा रह जाता। इन्द्र कदाचित् मेरे मान के भावों को जान, मुझको संकेत करता हुआ आगे और आगे लिये जा रहा था। अन्त में हम एक आगार में पहुँचे, जिसमें कई यन्त्र लगे हुए थे। एक यन्त्र के सम्मुख मुझको खड़ा कर दिया गया और देवराज ने कहा, ‘‘संजय! देखो, मैं तुम्हारे सम्मुख इस दिव्य-यन्त्र में हस्तिनापुर के एक आगार का सत्य चित्र उपस्थित करता हूँ। तुम देखोगे और सुनोगे कि वहाँ क्या हो रहा है।’’

देखते-देखते मेरे सम्मुख हस्तिनापुर का वह मार्ग आ उपस्थित हुआ, जो राजप्रासाद को जाता था। मैं पहचान गया। राज-पथ पर चल रहे लोग दिखाई देने लगे थे। पथ के दृश्य ऐसे बदल रहे थे, जैसे पथ पर चल रहा कोई व्यक्ति देख रहा हो।

राजप्रासाद का द्वार आया और द्वार पर परिचित द्वारपाल खड़ा दिखाई दिया। दृश्य आगे चलने लगा। राजप्रासाद का अन्तःपुर और तत्पश्चात् राजमाता का आगार आ गया। आगार में राजमाता, दोनों महारानियाँ तथा भीष्मजी बैठे बातें कर रहे थे। भीष्मजी का शब्द सुनाई दिया। वे कह रहे थे, ‘‘माताजी! संजय की पत्नी आज हस्तिनापुर छोड़कर चली गयी है।’’

‘‘तुमने उसको रोका क्यों नहीं?’’ राजमाता ने कहा।

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