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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं विस्मय में इन्द्र का मुख देखने लगा। मुझको इस प्रकार विस्मय में देख सुरराज ने कहा, ‘‘अब हमारा एक कार्य संजयजी को करना होगा। हम हस्तिनापुर से आये राजदूत का कुछ दिनों के लिए आतिथ्य किये बिना उसको जाने नहीं दे सकते। इससे हस्तिनापुर का अपमान हो जायेगा। और हमारा एक काम भी हो सकेगा।
‘‘हम चाहते हैं कि हमारी एक प्रिय अप्सरा का चित्र संजयजी बनाकर दे जायें। मेनका का चित्र अभी भी हमारी चित्रशाला में चमत्कार के रूप में विद्यमान है और जब-जब चित्रशाला जनसाधारण के निरीक्षण के लिए खुलती हैं, उस चित्र को देखने वालों की भीड़ लगी रहती है।’’
‘‘महाराज! यह चित्र अथवा चित्रकार के कारण नहीं, प्रत्युत मेनका का सौन्दर्य है, जिसको देखने के लिए देवता उमड़ पड़ते हैं।’’
‘‘ठीक है, परन्तु उस लड़की का सौन्दर्य चित्रपट पर तुमने ही तो अंकित किया था न! अन्य कोई भी ऐसा नहीं कर सका।’’
‘‘नहीं! तुम्हारी वहाँ कोई प्रतीक्षा नहीं कर रहा। इसका प्रमाण हम तुम्हें यहाँ बैठे दे सकते है।’’
मैं स्वयं भी वैसा ही समझ रहा था, परन्तु मैंने अपने हाव-भाव से विस्मय ही प्रकट किया। इस पर सुरराज ने कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ आओ। हम तुमको अपनी जानकारी का रहस्य बताते हैं’’
सुरराज मुझको साथ लेकर अन्तःपुर में चले गये। सुरराज के सहस्त्रों आगारोंवाले और सहस्त्रों झरोखों वाले प्रासाद के भीतर की शोभा और सुख-वासना के साधनों को देख मैं चकित रह गया। बड़े-बड़े प्रांगण थे, जिनमें विविध प्रकार की पुष्प-वाटिकाएँ थीं। उनमें अनेकानेक रंगारंग के पुष्प खिल रहे थे जो अपनी मादक सुरभि से वायुमण्डल में उन्माद मचा रहे थे। यत्र-तत्र देवांगनाएँ पुष्पों को सूँघ सूँघकर मस्त हो, नृत्य कर उठती थीं। उनके चलने में भी सुर-ताल, लय-सी उठती प्रतीत होती थी।
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