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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘हम तुम्हारी सहायता कर सकते हैं। बताओं क्या चाहते हो?’’

‘‘राजकुमार देवव्रत चाहते हैं कि गान्धर्व-राज उनके अधीन बना रहे। वह उनको यथापूर्व कर देता रहे, अन्यथा उस पर आक्रमण करना पड़ेगा। और उस युद्ध में देवता उनके सहायक न हों।’’

इन्द्र इस माँग को सुनकर मुस्कराने लगा। तत्पश्चात् उसने कहा, ‘‘यद्यपि इस गन्धर्व पर कौरवों के अधिकार को मैं पसन्द नहीं करता, फिर भी तुम्हें अपनी योजना की परीक्षा का अवसर देने के लिए हम गन्धर्वराज सुबल को कह देंगे कि वह कुरुराज से मैत्री बनाये रखे।

‘‘और देखो संजय! यदि तुम्हारे बाल-ब्रह्मचारी भीष्म को पसन्द हो तो गान्धर्वराज की पुत्री गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से हो सकता है।’’

मैं समझ नहीं सका कि एकाएक कुरुराज पर इतनी कृपा का क्या कारण है। मैंने कहा, ‘‘देवाधिदेव! धृतराष्ट्र को कोई भी नरेश अपनी पुत्री देना स्वीकार नहीं कर रहा। वह चक्षु-विहीन होने से अपाहिज है और कोई भी अपनी पुत्री के गले में एक अन्धे पुरुष को बाँधने के लिए तैयार नहीं है। आपकी पहली बात के लिए वास्तव में हम आपके आभारी हैं, परन्तु मुझे विश्वास है कि दूसरी बात कि गान्धारी का विवाह धृतराष्ट्र से सम्पन्न हो, सम्भव नहीं।’’

इस पर सुरराज खिलखिलाकर हँस पड़े और कहने लगे, ‘‘देखो संजय! तुमको कुरुराज की ओर से आभार प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं रहा। इसका प्रमाण तुमको हस्तिनापुर लौटने पर मिल जायेगा। हाँ, यदि गान्धार-कन्या का उपहार लेकर जाओगे, तो तुमको राज्य की ओर से पुनः सम्मान मिल जायेगा। वेतन में उन्नति होगी और राज माता तुम पर प्रसन्न रहेंगी।’’

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