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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हम तो चाहते हैं कि यह परिवार जो दानवों और असुरों से बहुत अंशों में श्रेष्ठ है और वेद-विरोधी नहीं है, भारत में सत्तारूढ़ रहे, परन्तु इसके अपने पाप ही इसको रसातल में लिये जा रहे है। हम इसमें कुछ नहीं कर रहे। हम तो केवल यही कर रहे हैं कि जो घाट पर खड़ी उस नौका के साथ किया जाता है, जिसमें आग लग गई हो। ऐसी नौका को घाट से खोलकर मँझधार में छोड़ दिया गया है।’’
न सीदेतामदुःखार्हे मा गमो भरतवर्षभ।।१५
गिरिराज ने मार्ग की कठिनाई बताई। इस विवरण से पता चलता है कि स्वर्गलोक हिमाचल प्रदेश था, जिसको पार कर ब्राह्मा का देश आता था।
महाभारत आदि पर्व ८८ वें अध्याय के श्लोक ३ में लिखा हैः
यदावमंस्था, सदृशः श्रेयसश्चा अल्पीयसश्चाविदित प्रभावः ।
तस्पाल्लोकास्त्वन्तस्तवेमे क्षीणे पुण्ये पतितास्यद्य राजन्।
‘‘जब ययाति ने अपनी श्लाघा की तो इन्द्र ने कहा, राजन्! तुमने अपने से बड़े और छोटे लोगों की प्रभाव न जानकर सबका तिरस्कार किया है। अतः तुम्हारे इन पुण्य लोकों में रहने की अवधि समाप्त हो गई है। इसलिए अब तुम यहाँ से नीचे गिरोगे।’’ तदनन्तर ययाति नीचे गिरे गये।
‘‘देवाधिदेव! नाव में लगी आग को, मैं बुझाने का यत्न कर रहा हूँ। आप इसका लंगर तो तोड़ दें। मैं तो आग बुझाता हुआ इसके साथ ही रहना चाहता हँ।’’
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