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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554

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भगवान महावीर के वचन

तप


¤ तप दो प्रकार का है बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य तप छह प्रकार का है। इसी तरह आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है।

¤ अनशन, अवमोर्ढ्य (ऊनोदरिका), भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता इस तरह बाह्य तप छह प्रकार का है।

¤ जो कर्मों की निर्जरा के लिए एक दो दिन आदिका (यथाशक्ति) प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है।

¤ जो शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) के लिए अल्प- आहार करते हैं, वे ही आगम में तपस्वी माने गये हैं। श्रुतिविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार करना है - भूखे मरना है।

¤ वास्तव में वही अनशन-तप है, जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) न हो तथा मन-वचन-कायरूप योगों की हानि (गिरावट) न हो।

¤ संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अत: जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।

¤ जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम से कम एक सिक्थ अथवा एक कण अथवा एक पास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्य रूपेण ऊनोदरी तप है।

¤ आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है, जिसमें वह ग्रहण का प्रमाण करता है, कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों में जाऊँगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया या अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूँगा, अमुक प्रकार का जैसे मॉंड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूँगा, आदि आदि।

¤ दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि के रसों के त्याग को रस-परित्याग नामक तप कहा गया है।

¤ एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) तथा स्त्री-पुरुषादि से रहित स्थान में शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्त शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है।

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