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भगवान महावीर की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9554

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भगवान महावीर के वचन

¤ गिरा, कंदरा आदि भयंकर स्थानों में, आत्मा के लिए सुखावह, वीरासन आदि उप आसनों का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है।

¤ सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है। अत: योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्म- चिन्तन करना चाहिये।

¤ रोग की चिकित्सा में रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख ही। चिकित्सा कराने पर रोगी को दुःख भी हो सकता है और सुख भी। इसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुःख दोनों हेतु नहीं होते। मोह के क्षय में प्रवृत होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुख भी। (कायक्लेश तप में साधक को शरीरागत दुःख या बाह्य व्याधियों को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहक्षय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी नहीं होता।)

¤ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) इस तरह छह प्रकार का आभ्यंतर तप है।

¤ व्रत, समिति, शील, संयम-परिणाम, तथा इन्द्रिय-नियह का भाव, ये सब प्रायश्चित्त तप हैं, जो निरंतर कर्तव्य-नित्य करणीय हैं।

¤ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय वा उपशम आदि की भावना करना तथा निजगुणों का चिन्तन करना निश्चय से प्रायश्चित्त तप है।

¤ जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष व्यक्त कर देता है, वैसे ही साधु को भी अपने समस्त दोषों की आलोचना माया- मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए।

¤ जैसे काँटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा होती है और काँटे के निकल जाने पर शरीर निशल्य अर्थात् सर्वाङ्ग-सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दुखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है - मन में कोई शल्य नहीं रह जाता।

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