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धर्म एवं दर्शन >> भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना

भगवान श्रीराम सत्य या कल्पना

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :77
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9556

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साधकगण इस प्रश्न का उत्तर हमेशा खोजते रहते हैं


सत्य तो यह है कि श्रीराम को मनुष्य मान कर हम घाटे में रहेंगे। मानने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि गोस्वामीजी दोनों पक्षों को जोड़ देते हैं, जब वे यह कहते हैं कि श्रीराम ईश्वर हैं, पर नरलीला कर रहे हैं, तो यदि उनके चरित से हम मानवीय चरित की शिक्षा लेना चाहें तो वह शिक्षा लेनी चाहिए। जब उन्होंने मनुष्य जैसी लीला की है तो उन्होंने मनुष्य चरित का आदर्श और मनुष्य चरित की मर्यादा उपस्थित की है, परन्तु उसके साथ-साथ जब वे श्रीराम के ईश्वरत्व पर इतना बल देते हैं और उनके ईश्वरत्व के प्रति इतना आग्रह करते हैं तब उनका उद्देश्य बहुत गहरा होता है और वह बड़े महत्त्व का है। वह यह है कि भई! इतिहास का पात्र कहें तो वे पहले थे, पर अब नहीं हें तुलसीदास जी श्रीराम को भूतकाल का पात्र न मान करके सार्वकालिक पात्र मानते हैं। जब वे कहते हैं कि श्रीराम ईश्वर हैं तो उनका अभिप्राय यह है कि उनकी दृष्टि में श्रीराम अब भी हैं और एक दूसरा बड़ा महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि मनुष्य के लिए केवल प्रेरणा की ही आवश्यकता नहीं है। मनुष्य के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि इतिहास में अनगिनत महापुरुष हुए और होते भी रहते हैं और मनुष्य के सामने उनके चरित्र की विशेषता आती रहती है और यह कहा भी जाता है कि मनुष्य के चरित्र में यह विशेषता आनी चाहिए समस्या यह नहीं है कि हमारे सामने चरित्रों की कमी है। चरित्रों के द्वारा यदि हम सीखना और पढ़ना चाहें तो न जाने कितने चरित्र और पात्र हमारे लिए विद्यमान हैं, पर हमारे सामने जो बड़ी समस्या है, वह समस्या यह है कि जानने के बाद भी हम उसे जीवन में क्रियान्वित कैसे करें? वस्तुत: महत्त्वपूर्ण केवल जानना ही नहीं है, बल्कि उसे क्रियान्वित करना है। इसी समस्या की ओर इंगित करते हुए गोस्वामीजी 'विनय-पत्रिका' में कहते हैं कि मनुष्य के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि-
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।

-विनय-पत्रिका, 116/2

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