लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> भक्तियोग

भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

283 पाठक हैं

स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


पतंजलि के 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' सूत्र की व्याख्या करते हुए भोज कहते हैं, ''प्रणिधान वह भक्ति है, जिसमें इन्द्रियभोग आदि समस्त फलाकांक्षाओं का त्याग कर सारे कर्म उन परम गुरु परमात्मा को समर्पित कर दिये जाते है।''

भगवान व्यास ने भी इसकी व्याख्या करते हुए कहा है, ''प्रणिधान वह भक्ति है जिससे उस योगी पर परमेश्वर का अनुग्रह होता है और उसकी सारी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं।'

शाण्डिल्य के मतानुसार ''ईश्वर में परमानुरक्ति ही भक्ति है।''

परा भक्ति की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या तो वह है, जो भक्तराज प्रह्लाद ने दी है जैसी तीव्र आसक्ति अविवेकी पुरुषों की इन्द्रिय- विषयों में होती है, (तुम्हारे प्रति) उसी प्रकार की (तीव्र) आसक्ति तुम्हारा स्मरण करते समय कहीं मेरे हृदय से चली न जाय!'' यह आसक्ति किसके प्रति? उन्हीं परम प्रभु ईश्वर के प्रति। किसी अन्य पुरुष (चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो) के प्रति आसक्ति को कभी भक्ति नहीं कह सकते। इसके समर्थन में एक प्राचीन आचार्य को उद्धृत करते हुए अपने श्रीभाष्य में रामानुज कहते हैं, ''ब्रह्मा से लेकर एक तृण पर्यन्त संसार के समस्त प्राणी कर्मजनित जन्ममृत्यु के वश में हैं, अतएव अविद्यायुक्त और परिवर्तनशील होने के कारण वे इस योग्य नहीं हैं कि ध्येय-विषय के रूप में वे साधक के ध्यान में सहायक हों।' शाण्डिल्य के 'अनुरक्ति' शब्द की व्याख्या करते हुए भाष्यकार स्वप्नेश्वर कहते हैं उसका अर्थ है - 'अनु' यानी पश्चात्, और 'रक्ति' यानी आसक्ति, वह आसक्ति जो भगवान के स्वरूप और उनकी महिमा के ज्ञान के पश्चात् है। अन्यथा स्त्री, पुत्र आदि किसी भी व्यक्ति के प्रति अन्ध आसक्ति को हम 'भक्ति' कहने लगें! अत: हम स्पष्ट देखते हैं कि आध्यात्मिक के अनुभूति निमित्त किये जानेवाले मानसिक प्रयत्नों की परम्परा या क्रम ही भक्ति है, जिसका प्रारम्भ साधारण पूजापाठ से होता है और अन्त ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में।

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book