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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान

ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर कौन हैं?

''जिनसे विश्व का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है'' वे ही ईश्वर हैं। (जन्मादि अस्य यत: - ब्रह्मसूत्र, 1/1/2 )

वे ''अनन्त, शुद्ध, नित्यमुक्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, परमकारुणिक और गुरुओं के भी गुरु हैं,'' और सवोंपरि, ''वे ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप हैं।'' स ईश्वर अनिर्वचनीयप्रेमस्वरूपः।

यह सब व्याख्या अवश्य सगुण ईश्वर की है। तो क्या ईश्वर दो हैं? एक सच्चिदानन्दस्वरूप, जिसे ज्ञानी 'नेति नेति' करके प्राप्त करता है और दूसरा, भक्त का यह प्रेममय भगवान? नहीं, वह सच्चिदानन्द ही यह प्रेममय भगवान है, वह सगुण और निर्गुण दोनों है। यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि भक्त का उपास्य सगुण ईश्वर, ब्रह्म से भिन्न अथवा पृथक् नहीं है। सब कुछ वही एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है। पर हाँ, ब्रह्म का यह निर्गुण स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण प्रेम व उपासना के योग्य नहीं। इसीलिए भक्त ब्रह्म के सगुण भाव अर्थात् परम नियन्ता ईश्वर को ही उपास्य के रूप में ग्रहण करता है। उदाहरणार्थ, ब्रह्म मानो मिट्टी या उपादान के सदृश है, जिससे नाना प्रकार की वस्तुएँ निर्मित हुई हैं। मिट्टी के रूप में तो वे सब एक हैं, पर उनका बाह्य आकार अलग अलग होने से वे भिन्न भिन्न प्रतीत होती हैं। उत्पत्ति के पूर्व वे सब की सब मिट्टी में गूढ़ भाव से विद्यमान थीं। उपादान की दृष्टि से अवश्य वे सब एक हैं, पर जब वे भिन्न भिन्न आकार धारण कर लेती हैं और जब तक आकार बना रहता है, तब तक तो वे पृथक् पृथक् ही प्रतीत होती हैं। एक मिट्टी का चूहा कभी मिट्टी का हाथी नहीं हो सकता, क्योंकि गढ़े जाने के बाद उनकी आकृति ही उनमें विशेषत्व पैदा कर देती है, यद्यपि आकृतिहीन मिट्टी की दशा में वे दोनों एक ही थे। ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिये, मानव-मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वही ईश्वर है। सृष्टि अनादि है, और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि हैं।

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