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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


यही धर्म की वर्तमान अवस्था है, और यही सब का वर्तमान मनोभाव है। मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ जो सब प्रकार की मानसिक अवस्थावाले लोगों के लिए उपयोगी हो, इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। यदि कॉलेज से वैज्ञानिक पदार्थविद् अध्यापकगण आयें, तो वे युक्ति विचार पसन्द करेंगे। उनको जहाँ तक सम्भव हो, युक्तिविचार करने दो, अन्त में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुँचेंगे, जहाँ से युक्ति-विचार की धारा अविच्छिन्न रखकर वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते,  - यह वे समझ लेंगे। वे कह उठेंगे, ''ईश्वर, मुक्ति इत्यादि धारणाएँ अन्धविश्वास हैं - उन सब को छोड़ दो।'' मैं कहता हूँ- ''हे दार्शनिकवर तुम्हारी यह पंचभौतिक देह तो उससे भी बड़ा अन्धविश्वास है, इसका परित्याग करो। आहार करने के लिए घर में या अध्यापन के लिए दर्शन- क्लास में अब तुम मत जाओ। शरीर छोड़ दो और यदि ऐसा न हो सके तो चुपचाप बैठकर जोर जोर से रोओ।'' - क्योंकि धर्म को जगत् के एकत्व और एक ही सत्य के अस्तित्व की सम्यक् उपलब्धि करने का उपाय अवश्य बताना पड़ेगा।

इसी तरह यदि कोई योगप्रिय व्यक्ति आये, तो हम आदर के साथ उसकी अभ्यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मनस्तत्व-विश्लेषण कर देने और उसकी आँखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्तुत रहेंगे। यदि भक्त लोग आयें, तो हम उनके साथ एकत्र बैठकर भगवान् के लिए हँसेंगे और रोयेंगे, प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त हो जायेंगे। यदि एक पुरुषार्थी कर्मी आये, तो उसके साथ यथासाध्य काम करेंगे। भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म के इस प्रकार का समन्वय सार्वभौमिक धर्म का अत्यन्त निकटतम आदर्श होगा। भगवान की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्णमात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं, मैं उनको 'एकदेशीय' कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही 'एकदेशीय लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्य जो कुछ है, वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर है। इस तरह चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म का आदर्श है। और भारतवर्ष में हम जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा इस आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है।

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