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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


कर्मी के लिए यह मनुष्य के साथ मनुष्य-जाति का योग है, योगी के लिए निम्न तथा उच्च अहं का योग, भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्वानुभूतिरूप योग है। 'योग' शब्द से यही अर्थ निकलता है। यह एक संस्कृत शब्द है और चार प्रकार के इस योग के संस्कृत में भिन्न भिन्न नाम हैं। जो इस प्रकार का योग-साधन करना चाहते है, वे योगी हैं। जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन कहते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। जो भगवद्-प्रेम द्वारा योग का साधन करते हैं, उन्हें भक्तियोगी कहते हैं। जो (पातंजल आदि) योगमार्ग के द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें राजयोगी कहते हैं और जो ज्ञान-विचार द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें ज्ञानयोगी कहते हैं। अतएव यह योगी शब्द इन सभी को समाविष्ट करता है।

पहले राजयोग की ही बात लीजिये। इस राजयोग - इस मन:संयोग का अर्थ क्या है? (इंग्लैण्ड में) आप लोगों ने योग शब्द के साथ भूत-प्रेत इत्यादि तरह तरह की अजीब धारणाएँ कर रखी हैं। इसलिए मैं पहले ही आप लोगों से कह देता हूँ कि योग के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। कोई भी योग युक्ति-विचारों का परित्याग कर आँखों में कपड़ा बाँधकर ढूँढते फिरने या अपने युक्ति-विचारों को कुछ ऐरे-गैरे पुरोहितों के हाथ समर्पण करने को नहीं कहता। उनमें से कोई भी नहीं कहता कि तुम्हें किसी मनुष्य के निकट श्रद्धा-भक्ति अर्पण करनी होगी। प्रत्येक ही यह कहता है कि तुम अपने युक्ति-विचार पर दृढ़ रहते हुए उस मार्ग को मजबूती से पकड़े रहो। प्राणियों में ज्ञान-लाभ के हम तीन उपाय देखते हैं।

पहला तो सहज-ज्ञान, जो जीव-जन्तुओं में विशेष परिस्फुटित देखा जाता है, यह ज्ञान-लाभ का सब से निम्न उपाय है। दूसरा उपाय क्या है? विचार-शक्ति। मनुष्यों में ही इसका समधिक विकास दिखायी पड़ता है। पहला तो सहज-ज्ञान है, वह एक असम्पूर्ण उपाय है। जीव-जन्तु का कार्यक्षेत्र बहुत ही संकीर्ण है और इस संकीर्ण क्षेत्र में ही सहजात ज्ञान काम आता है। मनुष्य के लिए यही सहज-ज्ञान विशेष परिस्फुटित होकर विचार-शक्ति में परिणत हुआ है। साथ ही कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया है। फिर भी यह विचार-शक्ति बहुत असम्पूर्ण है। यह कुछ दूर अग्रसर होकर ही रह जाती है, फिर आगे नहीं बढ़ सकती और यदि उसको और आगे ले जाने की चेष्टा करो, तो फलस्वरूप भयानक परिभ्रान्ति उपस्थित हो जायगी। युक्ति अपने आप अयुक्ति में परिणत हो जायगी। न्याय की भाषा में वह अन्योन्याश्रय (Argument in a circle ) से दूषित हो जायगी। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के मूलभूत कारण जड़ और शक्ति की बात लीजिये। जड़ क्या है?  जिस पर शक्ति कार्य करती है। और शक्ति क्या है?  - जो जड़ पर कार्य करती है।

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